मानवीय मूल्यों के पोषक संत रामकृष्ण परमहंस की जयन्ती 22 फरवरी को है। उनका जन्म सन् 1836 में बंगाल प्रांत स्थित कामारपुकुर ग्राम में हुआ था। इनके बचपन का नाम गदाधर था। पिताजी का नाम खुदीराम और माताजी का नाम चन्द्रा देवी था। रामकृष्ण का अन्तर्मन अत्यंत निश्छल, सहज और विनयशील था और वे संकीर्णताओं से बहुत दूर थे।
सन् 1855 में रामकृष्ण के बड़े भाई रामकुमार चट्टोपाध्याय को दक्षिणेश्वर काली मंदिर ले गए, जहाँ उन्हें माँ काली का पुजारी नियुक्त किया गया और 1856 में उन्हें काली मंदिर में पुरोहित बना दिया गया।
श्री रामकृष्ण भक्ति में इतना लीन हुए कि अपनी काली माता को ब्रह्माण्ड की माता के रूप में देखने लगे। कहा जाता है कि श्री रामकृष्ण को काली माता के दर्शन ब्रह्माण्ड की माता के रूप में हुआ था। श्री रामकृष्ण इसका वर्णन करते हुए कहते थे कि एकाएक सबकुछ अदृश्य हो गया, जैसे कहीं कुछ भी नहीं था और मैंने एक अनंत तीर विहीन आलोक का सागर देखा, यह चेतना का सागर था। जिस दिशा में भी मैंने दूर-दूर तक, जहाँ भी देखा बस उज्ज्वल लहरें दिखाई दे रही थी, जो एक के बाद एक मेरी तरफ आ रहीं थीं।
रामकृष्ण परमहंस जीवन के अंतिम दिनों में समाधि की स्थिति में रहने लगे। अत: तन से शिथिल होने लगे। शिष्यों के द्वारा स्वास्थ्य पर ध्यान देने की प्रार्थना पर अज्ञानता जानकर हँस देते थे। रामकृष्ण के परमप्रिय शिष्य विवेकानन्द कुछ समय हिमालय के किसी एकान्त स्थान पर तपस्या करना चाहते थे। यही आज्ञा लेने जब वे गुरु के पास गये तो उन्होंने कहा- ”वत्स हमारे आसपास के क्षेत्र के लोग भूख से तड़प रहे हैं और चारों ओर अज्ञान का अंधेरा छाया है। यहाँ लोग रोते-चिल्लाते रहें और तुम हिमालय की किसी गुफा में समाधि के आनन्द में निमग्न रहो। क्या तुम्हारी आत्मा स्वीकारेगी?ÓÓ इससे विवेकानन्द दरिद्र नारायण की सेवा में लग गये।
रामकृष्ण महान योगी, उच्चकोटि के साधक व विचारक थे। सेवापथ को ईश्वरीयपथ मानकर अनेकता में एकता का दर्शन करते थे। सेवा से समाज की सुरक्षा चाहते थे। गले में सूजन को जब डाक्टरों ने कैंसर बताकर समाधि लेने और वार्तालाप से मना किया, तब भी वे मुस्कराये। चिकित्सा कराने से रोकने पर भी विवेकानन्द इलाज कराते रहे। चिकित्सा के वाबज़ूद उनका स्वास्थ्य बिगड़ता ही गया और सन् 1886 ई. में श्रावणी पूर्णिमा के अगले दिन प्रतिपदा को प्रात:काल रामकृष्ण परमहंस ने देह त्याग दिया। 16 अगस्त का सवेरा होने के कुछ ही वक्त पहले आनन्दघन विग्रह श्रीरामकृष्ण इस नश्वर देह को त्याग कर महासमाधि द्वारा स्व-स्वरुप में लीन हो गये।