‘नशा’ पाप का मूल जड़ है और नशा को छोड़े बिना आप स्वयं की शक्ति को जान ही नहीं सकते, क्योंकि यह आपको मानसिक व शारीरिक रूप से विकलांग बना देता है। अत: किसी भी दशा में व्यक्ति को मादकपदार्थों शराब, गांजा, भांग, चरस, कोकीन, हेरोइन, अफीम, डोडाचूरा, गुटखा, बीड़ी, सिगरेट आदि का सेवन नहीं करना चाहिए।
संस्कार और प्रवृत्ति, मनुष्य के जीवन निर्माण में मुख्य भूमिका निभाते हैं। जिनका जीवन संयमित और अनुशासित है, वही उत्कृष्टता को प्राप्त कर पाते हैं। समय का सदुपयोग करके ही हम सफलता प्राप्त कर सकते हैं, क्योंकि कब यह शरीर नष्ट होजाए, कुछ कहा नहीं जा सकता? अत: जितने दिन, जितने समय तक जिएं, ज्योति की तरह जिएं। आत्मा पर पड़े आवरण के हट जाने पर ही ज्योति प्रकट होती है और इसके लिए परमसत्ता का निरन्तर स्मरण, ऋषियों-मुनियों के चिन्तनों का श्रवण, मनन, अध्ययन तथा सत्संग महत्त्वपूर्ण साधन हैं।
ध्यान रखें कि सदाचार, सद्विचार, समता एवं मानवीय मूल्यों के धारण, पोषण एवं क्रियान्वयन से ही व्यक्ति महान बनता है। अत: अपनी बुद्धि को योग, ध्यान, साधना के क्रमों से चैतन्य करें और अध्यात्मिक जीवन अपनाएं। अध्यात्मिक जीवन से तात्पर्य संन्यासी हो जाना नहीं है, बल्कि गृहस्थ जीवन में रहते हुये भी आहार, व्यवहार व विचारों की पवित्रता के साथ ध्यान-साधना के क्रमों को अपनाकर आप अपने जीवन को आनन्दमय बना सकते हैं।
जीवन के अनेक रंग-रूप हैं और यदि गहराई से देखा जाये, तो इसमें अद्भुत आनंद छिपा हुआ है। ज़रूरत है, तो केवल भौतिक जगत् की भूल-भुलैया से निकलकर कुछ समय अध्यात्मिक जगत् में प्रवेश करने की। फिर देखिये कि किस तरह काम, क्रोध, लोभ, मोह, नियंत्रित होकर आन्तरिक आनन्दानुभूति की प्राप्ति होती है।
भारतीय संस्कृति की पुनसर््थापना एवं मानवीय मूल्यों की रक्षा के लिये सतत प्रयासरत ऋषिवर सद्गुरुदेव परमहंस योगीराज श्री शक्तिपुत्र जी महाराज का चिन्तन है कि–
”तुम मनुष्य हो! क्षुद्रभावना से ग्रसित होकर नशे का सहारा लेते हो। जब तक क्षुद्रभावना से बाहर नहीं निकलोगे, तब तक तुम्हें सत्य की अनुभूति नहीं हो सकती। नशे में लिप्त होकर स्वयं को तो नष्ट कर ही रहे हो, अपनी परिवारिक सुख-शान्ति भी छीन रहे हो। क्या नशे की गंदगी में ही अपना जीवन नष्ट कर लोगे? इस गन्दगी के दलदल से बाहर निकलो और मनुष्य बनो।’’
भौतिकतावाद की आंधी में आत्मिक आनन्द की अनुभूति समाप्त होती जा रही है और समाज के लोगों के पास इतना समय नहीं है कि इस आंधी को ठहराव देकर अपनी मूल संस्कृति के लिये कुछ समय निकाल सकें। ध्यान, योग और ‘माँ’ की स्तुति के बल पर सोई हुई अन्तश्चेतना को जाग्रत् करके अपनी अस्मिता को वापस लाना होगा। वह मानव, मानव नहीं, जो कि अपनी मूल संस्कृति को, आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा (माँ) को, अपनी इष्ट को भूल जाये। विकास के अन्धानुकरण में हम अपनी अस्मिता, आत्मनिर्भरता व आत्माभिव्यक्ति को भूलते जा रहे हैं, मानव होकर मानव की परिभाषा भूल चुके हैं और यह विशालपरक अमूल्य जीवन निजी स्वार्थ तक सीमित होकर रह गया है।
प्रकृतिसत्ता ने हमारे शरीर में आत्मारूपी अंश को स्थापित किया है। साधनाक्रमों के बल पर सतोगुणी कोशिकाओं को जाग्रत् करने की ज़रूरत है। इस अन्तर्निहित शक्ति के बल पर हम अधकचरी आधुनिकता से उभरकर, विशिष्ट रचना करके समाज के लिये सही विकास का रास्ता प्रशस्त कर सकते हैं। $गुलामी की मानसिकता से युक्त जीवन जीने वाले समाज को आत्मसम्मानयुक्त, आत्मनिर्भरता का रास्ता प्रशस्त कर सकते हैं।
अलोपी शुक्ला
कार्यकारी सम्पादक
संकल्प शक्ति