बसंतपंचमी एक हिन्दू त्यौहार है। इस दिन विद्या की देवी सरस्वती की पूजा की जाती है। इस दिन पीले वस्त्र धारण करते हैं। शास्त्रों में बसंतपंचमी को ऋषिपंचमी भी उल्लेखित किया गया है, तो पुराणों-शास्त्रों तथा अनेक काव्यग्रंथों में भी अलग-अलग ढंग से इसका चित्रण मिलता है।
बसंत लोगों का सबसे मनचाहा मौसम है। इस मौसम में फूलों पर बहार आ जाती है, खेतों में सरसों के फूल स्वर्णिम आभा बिखेरने लगते हैं, जौ और गेहूँ की बालियाँ खिलने लगती हैंं, आमों के पेड़ों पर मांजर (बौर) आ जाता है और हर तरफ रंग-बिरंगी तितलियाँ मँडराने लगतीं हैं।
बसंतऋतु आते ही प्रकृति का कण-कण खिल उठता है। मानव तो क्या पशु-पक्षी तक उल्लास से भर जाते हैं। हर दिन नयी उमंग से सूर्योदय होता है और नयी चेतना प्रदान करके अगले दिन फिर आने का आश्वासन देकर चला जाता है। वैसे तो माघ का यह पूरा मास ही उत्साह देने वाला है, पर बसंतपंचमी (माघ शुक्ल) का पर्व भारतीय जनजीवन को अनेक तरह से प्रभावित करता है। प्राचीनकाल से इसे ज्ञान और कला की देवी माँ सरस्वती का जन्मदिवस माना जाता है। जो शिक्षाविद भारत और भारतीयता से प्रेम करते हैं, वे इस दिन माँ सरस्वती, माँ शारदे की पूजा करके उनसे और अधिक ज्ञानवान होने की प्रार्थना करते हैं। इस वर्ष यह पर्व दिनांक 14 फरवरी को है।
बसन्तपंचमी की कथा
उपनिषदों की कथा के अनुसार, सृष्टि के प्रारंभिककाल में भगवान् शिव की आज्ञा से भगवान् ब्रह्मा ने जीवों, खासतौर पर मनुष्य योनि की रचना की, लेकिन अपनी सर्जना से वे संतुष्ट नहीं थे, उन्हें लगता था कि कुछ कमी रह गई है, जिसके कारण चारों ओर मौन छाया रहता है। तब ब्रह्मा जी ने इस समस्या के निवारण के लिए अपने कमण्डल से जल अपने हथेली में लेकर संकल्पस्वरूप उस जल को छिड़ककर भगवान् श्री विष्णु की स्तुति करनी आरम्भ की। ब्रम्हा जी की स्तुति को सुनकर भगवान् विष्णु तत्काल ही उनके सम्मुख प्रकट हो गए और उनकी समस्या जानकर उन्होंने आदिशक्ति माता जगदम्बे का आव्हान किया। विष्णु जी के द्वारा आव्हान होने के कारण माता जगदम्बे वहां तुरंत ही प्रकट हो गयीं, तब ब्रम्हा एवं विष्णु जी ने उन्हें इस संकट को दूर करने का निवेदन किया।
ब्रम्हा जी तथा विष्णु जी की बातों को सुनने के बाद उसी क्षण आदिशक्ति के शरीर से श्वेत रंग का एक भारी तेज उत्पन्न हुआ, जो एक दिव्य नारी के रूप में बदल गया। यह स्वरूप एक चतुर्भुजी सुंदर स्त्री का था, जिनके एक हाथ में वीणा तथा दूसरा हाथ वर मुद्रा में था और अन्य दोनों हाथों में पुस्तक एवं माला थी। आदिशक्ति के शरीर से उत्पन्न तेज से प्रकट होते ही देवी ने वीणा का मधुरनाद किया, जिससे संसार के समस्त जीव-जन्तुओं को वाणी प्राप्त हो गई, जलधारा में कोलाहल व्याप्त हो गया, पवन चलने से सरसराहट होने लगी। तब सभी देवताओं ने शब्द और रस का संचार कर देने वाली उन देवी को वाणी की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती कहा।
फिर आदिशक्ति जगदम्बे ने ब्रम्हा जी से कहा कि मेरे तेज से उत्पन्न हुई ये देवी सरस्वती आपकी पत्नी बनेंगी, जैसे लक्ष्मी श्री विष्णु की शक्ति हैं, पार्वती शिव की शक्ति हैं, उसी प्रकार ये सरस्वती देवी ही आपकी शक्ति होंगी। ऐसा कहकर वे अंतर्धान हो गयीं। इसके बाद सभी देवता सृष्टि के संचालन में संलग्न हो गए।
सरस्वती को वागीश्वरी, भगवती, शारदा, वीणावादनी और वाग्देवी सहित अनेक नामों से पूजा जाता है। ये विद्या और बुद्धि प्रदाता हैं।
संगीत की उत्पत्ति करने के कारण ये संगीत की देवी भी हैं। बसन्तपंचमी के दिन को इनके प्रकटोत्सव के रूप में भी मनाते हैं। ऋग्वेद में भगवती सरस्वती का वर्णन करते हुए कहा गया है-
‘प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वजिनीवती धीनामणित्रयवतु।’
अर्थात् ये परम चेतना हैं। सरस्वती के रूप में ये हमारी बुद्धि, प्रज्ञा तथा मनोवृत्तियों की संरक्षिका हैं। हममें जो आचार और मेधा है उसका आधार भगवती सरस्वती ही हैं। इनकी समृद्धि और स्वरूप का वैभव अद्भुत है।