यह कहानी त्रेता युग की है। उस समय श्रवण कुमार नाम का एक बालक था। उसके माता-पिता अंधे थे और उन्होंने श्रवण को कई मुसीबतों का सामना करते हुए पाला था। श्रवण कुमार बचपन से ही अपने माता-पिता का बहुत आदर करता था। जैसे-जैसे श्रवण बड़ा होता गया, उसने घर की जि़म्मेदारी अपने कंधों पर ले ली।
वह नित्यप्रति सुबह उठकर सबसे पहले अपने माता-पिता के चरणों को स्पर्श करके उन्हें स्नान कराने के लिए तालाब से पानी भरकर लाता था। इसके बाद तुरंत घर का पूरा कार्य करता। एक दिन श्रवण के माता-पिता ने श्रवण से कहा, ‘बेटा, हमारी तीर्थयात्रा पर जाने की इच्छा है।Ó श्रवण ने कहा, ‘आप केवल आदेश दें, मैं आपकी हर इच्छा को पूरा करूंगा।Ó उस समय बस और ट्रेन की सुविधा नहीं थी। साथ ही श्रवण के माता-पिता देख भी नहीं सकते थे। ऐसे में उन्हें तीर्थयात्रा कराना भला कैसे संभव हो पाता? तभी श्रवण कुमार को एक तरकीब सूझी। वह तुरंत बाहर गया और वहां से दो बड़ी टोकरी लेकर आया। उसने उन दोनों टोकरियों को एक मज़बूत डंडे में मोटी रस्सी के सहारे लटकाकर एक बड़ा-सा तराजू बना लिया।
श्रवण कुमार ने उस तराजू में अपने मां-बाप को बारी-बारी से गोद में उठाकर बैठा दिया। उसके बाद तराजू को अपने कंधों पर लेकर उन्हें तीर्थयात्रा पर लेकर निकल पड़ा। वह लगातार कुछ दिनों तक अपने माता-पिता को एक के बाद एक सभी पवित्र स्थलों पर घुमाने लगा। इस दौरान श्रवण कुमार ने अपने माता-पिता को प्रयाग से लेकर काशी तक के दर्शन कराए। एक दिन श्रवण कुमार आराम करने के लिए अयोध्या के पास अपने माता-पिता के साथ रुका, तभी उसकी मां ने पानी पीने की इच्छा जताई। श्रवण को पास में ही एक नदी दिखाई दी। उसने अपने माता-पिता से कहा, ‘आप दोनों यहां आराम करें, मैं आप लोगों के लिए अभी पानी लेकर आता हूं।Ó
नदी के पास पहुंचकर श्रवण कुमार कमंडल में पानी भरने लगा। उसी जंगल में अयोध्या के राजा दशरथ भी शिकार के लिए पहुंचे थे। पानी में हलचल की आवाज़ सुनकर उन्हें लगा कि कोई जानवर पानी पीने आया है। उन्होंने बिना देखे केवल ध्वनि सुनकर ही अपना तीर चला दिया। दुर्भाग्य से वह सीधे श्रवण कुमार को लग गया। तीर लगते ही वह चीख पड़ा।
इसके बाद राजा दशरथ जब अपने शिकार को देखने पहुंचे, तो वहां श्रवण था। वे तुरंत श्रवण कुमार के नज़दीक पहुंचे और कहा, ‘मुझसे बहुत बड़ी भूल हो गई, मुझे माफ कर दो। मुझे बिल्कुल नहीं पता था कि यहां कोई मानव होगा। मैं इस $गलती का पश्चाताप करने के लिए क्या करूं कि तुम मुझे माफ कर दो।Ó करहाते हुए श्रवण कुमार ने कहा, ‘यहां से थोड़ी ही दूर जंगल में मेरे माता-पिता बैठे हैं। उन्हें काफी प्यास लगी है। आप उन तक यह पानी पहुंचा दीजिए और मेरे बारे में उन्हें कुछ भी न बताएं। इतना कहते-कहते श्रवण कुमार की सांसें रुक गईं।Ó
श्रवण कुमार की मौत से राजा दशरथ सुन्न पड़ गए। किसी तरह वे श्रवण कुमार के बताए अनुसार जल लेकर उसके माता-पिता के पास पहुंचे। श्रवण के माता-पिता अपने बेटे की आहट को बखूबी पहचानते थे। जब राजा दशरथ उनके करीब पहुंचे तो उन्होंने आश्चर्य से पूछा, ‘तुम कौन हो और हमारे श्रवण को क्या हुआ? वह क्यों नहीं आया?Ó
राजा दशरथ उनके सवालों का जवाब नहीं दे पाए। उन्होंने चुपचाप पानी उनकी तरफ बढ़ा दिया। तभी श्रवण की मां ने चिंतित स्वर में जोर से कहा, ‘तुम कौन हो और मेरा बेटा कहां है, ये बताते क्यों नहीं हो?Ó श्रवण की मां की चिंता देखकर राजा दशरथ ने कहा, ‘मां मुझे माफ कर दीजिए। शिकार करने के लिए मैंने जो तीर चलाया था, वह तीर सीधे आपके बेटे श्रवण को जा लगा। उसने मुझे आप लोगों के बारे में बताया, इसलिए मैं यहां पानी लेकर चला आया।Ó इतना कहकर राजा दशरथ चुप हो गए।
राजा दशरथ की बात सुनकर श्रवण की मां जोर-जोर से रोने लगी। उन दोनों ने अपने बेटे की मौत के गम में राजा दशरथ के लाए हुए पानी को हाथ तक नहीं लगाया। श्रवण के पिता ने तभी राजा दशरथ को पुत्र वियोग का श्राप दे दिया। कुछ ही देर बाद श्रवण के माता-पिता ने अपने प्राण त्याग दिए।
बताया जाता है कि श्रवण कुमार के पिता के श्राप के परिणामस्वरूप ही राजा दशरथ को अपने पुत्र राम से दूर रहने पड़ा था। राजा दशरथ के इस श्राप को पूरा करने के लिए ही भगवान् राम को 14 वर्षों का वनवास हुआ और श्रवण के पिता की ही तरह राजा दशरथ भी अपने बेटे से दूरी को बर्दाश्त नहीं कर पाए तथा उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए।
कहानी से यह सीख मिलती है कि हर बच्चे को अपने माता-पिता की सेवा श्रवण कुमार की तरह ही नि:स्वार्थ भाव से करनी चाहिए। यही उनका सबसे बड़ा कर्तव्य है।