शास्त्रों में विष्णु जी और नारद मुनि से जुड़ा एक किस्सा है। नारद मुनि को इस बात का अहंकार हो गया था कि उन्होंने कामदेव को पराजित कर दिया है। जब ये बात उन्होंने विष्णु जी को बताई तो उन्होंने नारद मुनि का अहंकार दूर करने की योजना बनाई। विष्णु जी ने अपनी माया से एक सुंदर नगरी बसाई।
नारद मुनि ने उस माया नगरी में पहुंच गए। वहाँ उन्होंने राजकुमारी विश्वमोहिनी को देखा, वह बहुत सुंदर थी। नारद जी को मालूम हुआ कि राजकुमारी का स्वयंवर होने वाला है। विश्वमोहिनी की सुदंरता देखकर नारद मुनि के मन में विचार आया कि इससे तो मुझे विवाह करना चाहिए।
नारद मुनि के मन में ये विचार आते ही वे तुरंत विष्णु जी के पास पहुंच गए। नारद मुनि ने विष्णु जी को पूरी बात बताई और कहा कि आप मुझे अपना सुंदर रूप दे दीजिए। स्वयंवर हो रहा है तो कन्या उसे ही पसंद करेगी, जो दिखने में सुंदर होगा। इसलिए आप मुझे अपना रूप दे दीजिए।
विष्णु जी ने मुस्कान के साथ कहा कि मैं आपकी ये इच्छा ज़रूर पूरी करूंगा। विष्णु जी ने नारद को वानर का मुख दे दिया। नारद मुनि इस बात से बेखबर थे और वे ऐसे ही स्वयंवर में पहुंच गए। जब वे वानर रूप में स्वयंवर में पहुंचे तो वहाँ उनका अपमान हो गया।
जब नारद मुनि को असलियत मालूम हुई तो वे विष्णु जी पर गुस्सा हो गए। उन्होंने विष्णु जी से पूछा कि आपने मेरे साथ ऐसा क्यों किया? विष्णु जी ने जवाब दिया कि जब कोई व्यक्ति बीमार होता है तो वैद्य उसे कड़वी दवाई देता है, भले ही बीमार को वह दवा अच्छी न लगे। आप जैसे संत के मन में कामवासना जाग गई थी और इन वासनाओं को आपके मन से दूर करना था। इसलिए मैंने ही ये पूरी माया रची थी। नारद मुनि को विष्णु जी की बात समझ आ गई और अपनी गलती का अहसास हो गया।
इस प्रसंग की सीख यह है कि हमें अपनी किसी भी उपलब्धि पर अहंकार नहीं करना चाहिए, अन्यथा अपमानित होना पड़ सकता है।