Sunday, November 24, 2024
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भीष्म पितामह को प्राप्त था इच्छामृत्यु का वरदान

महाभारत महाकाव्य के सबसे प्रसिद्ध पात्र, जिन्हें हम भीष्म पितामह के नाम से जानते है, वास्तव में इनका नाम देवव्रत था और वे महाराज शांतनु एवं माता गंगा के पुत्र थे। गंगा ने शांतनु से वचन लिया था कि वे कभी भी कुछ भी करें, उन्हें टोका नहीं जाये, अन्यथा वो चली जाएँगी। शांतनु उन्हें वचन दे देते हैं और विवाह के बाद गंगा अपने पुत्रों को जन्म के बाद गंगा में बहा देतीं, जिसे देखकर शांतनु को बहुत कष्ट होता था, लेकिन वे कुछ नहीं कर पाते। इस तरह गंगा अपने सात पुत्रों को गंगा में बहा देती हैं और जब आठवा पुत्र होता हैं, तब शांतनु से रहा नहीं जाता और वे गंगा को टोक देते हैं, जब गंगा बताती हैं कि वो देवी गंगा हैं और उनके सातों पुत्रो को श्राप मिला था, उन्हें श्रापमुक्त करने हेतु नदी में बहाया, लेकिन अब वे अपने आठवें पुत्र को लेकर जा रही हैं, क्योंकि आपने अपना वचन भंग किया हैं।

कई वर्ष बीत जाते हैं, शांतनु उदास हर रोज गंगा के तट पर आते थे, एक दिन उन्हें वहां एक बलशाली युवक दिखाई दिया, जिसे देख शांतनु ठहर गये, तब देवी गंगा प्रकट हुर्इं और उन्होंने शांतनु से कहा कि यह बलवान वीर आपका आठवां पुत्र हैं, इसे सभी वेदों, पुराणों एवं शस्त्र-अस्त्र का ज्ञान हैं, इसके गुरु स्वयं भगवान् परशुराम  हैं और इसका नाम देवव्रत हैं जिसे मैं आपको सौंप रही हूँ। यह सुनकर शांतनु प्रसन्न हो जाते हैं और उत्साह के साथ देवव्रत को हस्तिनापुर ले जाते हैं तथा अपने उत्तराधिकारी की घोषणा कर देते हैं, लेकिन नियति इसके बहुत विपरीत थी, इनके एक वचन ने इनका नाम एवं कर्म दोनों की दिशा ही बदल दी।

क्या थी भीष्म प्रतिज्ञा?  

देवव्रत को भीष्म नाम उनके पिता ने दिया था, क्योंकि इन्होंने अपनी सौतेली माता सत्यवती को वचन दिया था कि वे आजीवन अविवाहित रहेंगे और कभी हस्तिनापुर के सिंहासन पर नहीं बैठेंगे और साथ ही अपने पिता को वचन दिया था कि वे आजीवन हस्तिनापुर के सिंहासन के प्रति वफादार रहेंगें एवं उसकी सेवा करेंगे। उनकी इसी भीष्म प्रतिज्ञा के कारण इनका नाम भीष्म पड़ा और इसी के कारण महाराज शांतनु ने भीष्म को इच्छा मृत्यु का वरदान दिया था, जिसके अनुसार जब तक वे हस्तिनापुर के सिंहासन को सुरक्षित हाथो में नहीं सौंप देते, तब तक वे मृत्यु का आलिंगन नहीं कर सकते हैं।

भीष्म पितामह की मृत्यु  

जब कालान्तर पश्चात् कौरवों और पांडवो के बीच युद्ध छिड़ जाता हैं, तब पितामह भीष्म के आगे पांडव सेना का टिक पाना बहुत मुश्किल था, उन्हें अपनी जीत निश्चित करने के लिए भीष्म की मृत्यु अनिवार्य थी, तब भगवान् श्रीकृष्ण इस समस्या का समाधान सुझाते हैं और अर्जुन के रथ पर अंबा अर्थात शिखंडी को खड़ा करते हैं, चूँकि शिखंडी आधा नर था, अत: युद्ध भूमि में आ सकता था और नारी भी था, इसलिये भीष्म ने यह कह दिया था कि वो किसी नारी पर प्रहार नहीं कर सकते। इस प्रकार शिखंडी अर्जुन की ढाल बनती हैं और अर्जुन उसकी आड़ में पितामह को बाणों की शैय्या पर सुला देता हैं।

भीष्म पितामह युद्ध समाप्ति तक बाणों की शैय्या पर ही रहते हैं. वे मृत्यु की इच्छा जब तक नहीं कर सकते थे, जब तक ही हस्तिनापुर का सिहासन सुरक्षित हाथों में ना सौप दें, अत: वे युद्ध समाप्ति पर ही अपनी मृत्यु का आव्हाहन करते हैं और उन्होंने प्रतिज्ञा पूर्ण होने पर माघ शुक्लपक्ष की अष्टमी को अपने प्राण त्यागे

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