नई दिल्ली। जैसा कि इन दिनों एक खबर की विशेष चर्चाएं रहीं कि लड़कियों को मस्जि़द में अकेली आने पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। यह मामला तूल पकडऩे ही जा रहा था कि दिल्ली के उपराज्यपाल के अनुरोध के बाद लड़कियों के मस्जि़द परिसर में प्रवेश पर लगी पाबंदी उठा ली गई है।
उपराज्यपाल के अनुरोध के बाद गुरुवार को जामा मस्जि़द के शाही इमाम ने कहा कि नमाज अदा करने वाले किसी भी व्यक्ति पर यह आदेश लागू नहीं होगा और इबादत के लिए मस्जि़द आने वाली लड़की को नहीं रोका जायेगा।
अब प्रश्न यह उठता है कि धार्मिकस्थलों या किसी समाजिक मसले को लेकर जब भी कोई विवाद उत्पन्न होता है, तो उसकी गाज महिलाओं पर ही क्यों गिरती है? लड़कियों के परिसर में दाखिल होने पर पाबंदी की जो वजह बताई गई थी, वह प्रथम दृष्टया ही पूर्वाग्रह से ग्रसित था। अगर कोई लड़की अपने दोस्त से मिलने या उसके साथ जाती है तो मनाही का फरमान केवल लड़कियों के लिए ही क्यों जारी किया गया? धार्मिकस्थल परिसरों में अवांछित गतिविधियों की शिकायतों का कोई आधार हो सकता है, लेकिन उसका हल भेदभाव से भरा फैसला करना तो नहीं है।
यदि यह कहें तो गलत न होगा कि अमूमन सभी धर्मों में किसी न किसी रूप से महिलाओं के प्रति भेदभाव की एक अघोषित व्यवस्था चलती रही है। उसी के अनुसार समाज का दृष्टिकोण भी निश्चित होजाता है, जिसमें महिलाओं को कमज़ोर और पुरुषों को शक्तिमान मान लिया जाता है। प्रबंधन को चाहिए कि धार्मिकस्थलों पर यदि कोई अवांछित गतिविधियाँ होती हैं, तो उसमें रोक लगाएं, न कि लड़कियों, महिलाओं के अधिकारों पर रोक का फरमान जारी किया जाए।