”पवित्र अनुभूतियों से परिपूर्ण मेरी आत्मा, मेरा यह समग्र जीवन उन शिष्यों के कल्याण के लिए, उन भक्तों के कल्याण के लिये समर्पित है, जो नि:स्वार्थभाव से प्रकृतिसत्ता माता भगवती आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा के नियमों को समझकर, उसकी सामथ्र्य को पहचानकर अनीति-अन्याय-अधर्म, ईष्र्या-द्वेष, अहंकार तथा दूसरों की निन्दा करने की प्रवृत्ति का पूरी तरह त्याग कर चुके हैं और मानवीय कर्तव्यपथ पर अग्रसर हैं।”
-सद्गुरुदेव श्री शक्तिपुत्र जी महाराज
चैत्र नवरात्र पर्व, चैत्र शुक्लपक्ष की प्रतिपदा तिथि (22 मार्च) से प्रारम्भ है। देशभर के देवी मंदिरों में जहाँ भक्तों का आवागमन प्रारम्भ हो गया है, वहीं अध्यात्मिकस्थली पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम में विगत 26 वर्ष से अनवरत अनन्तकाल के लिए चल रहे श्री दुर्गाचालीसा पाठ एवं ऋषिवर सद्गुरुदेव परमहंस योगीराज श्री शक्तिपुत्र जी महाराज के तप की ऊर्जा से शान्ति का झरना प्रवाहित है और भक्तगण नित्यप्रति की तरह इस पर्व पर भी ‘माँ’ के गुणगान में निमग्न उस शांतिमयी ऊर्जा से प्लावित हैं।
इस पावन पर्व पर सिद्धाश्रम में महाराजश्री के शिष्यों व ‘माँ’ के भक्तों का आना शुरू हो गया है। सभी प्रात:काल ब्रह्ममुहूर्त में स्नानादि के बाद भक्ति, ज्ञान और आत्मशक्ति प्राप्त करने की आकांक्षा में ध्यान-साधना क्रमों में प्रवृत्त हो रहे हैं, वहीं गुरुवरश्री के करकमलों से सम्पन्न आरतियों का अनुपम लाभ प्राप्त करके जीवन को धन्य बना रहे हैं।
चैत्र नवरात्र के प्रथम दिवस की प्रात:कालीन बेला, श्री दुर्गाचालीसा पाठ मंदिर में आरतीक्रम के पश्चात् परम पूज्य गुरुवरश्री ने मूलध्वज साधना मंदिर में नए शक्तिध्वज के रोहण के पश्चात् ‘माँ’ की पूजा-अर्चना का क्रम सम्पन्न किया। इस अवसर पर पूजनीया शक्तिमयी माता जी व शक्तिस्वरूपा बहनों की उपस्थिति उल्लेखनीय रही।
ज्ञातव्य है कि प्रात:कालीन व सायंकालीन बेला में भक्तगण उत्साहपूर्वक, मनोयोग के साथ मूलध्वज साधना मंदिर में नित्यप्रति पहुंचकर शान्तिपूर्वक ‘माँ’ आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा और गुरुवरश्री की दिव्य आरती तथा साधनात्मक क्रमों में शामिल होने के बाद क्रमबद्ध रूप से गुरुवरश्री के चरणों को स्पर्श करने का सौभाग्य प्राप्त कर रहे हैं।
विवेकवान वह है, जो
सद्गुरुदेव श्री शक्तिपुत्र जी महाराज का चिन्तन है कि ”समय रहते जिनका विवेक जाग्रत् होजाता है, वास्तविक रूप से वे ही मनुष्य हैं और ऐसे मनुष्यों के कदम बरबस ही सत्यपथ की ओर बढ़ते चले जाते हैं तथा जिनका विवेक सुषुप्तावस्था में पड़ा रहता है, वे पतन की गहरी अंधेरी खाई में गिरते चले जाते हैं। यह कह देने मात्र से कोई विवेकी नहीं हो सकता कि हम पढ़े-लिखे बहुत होशियार हैं। विवेकवान वह है, जो स्वयं के कृत्तिम व उदण्डस्वभाव में परिवर्तन लाकर मानवता की राह पर चलता है। छल-प्रपंच का जीवन तो छुद्र प्रकृति के व्यक्तियों का होता है। ध्यान रखें कि आप दूसरों के प्रति जैसा व्यवहार करेंगे, वही व्यवहार आपको भी प्राप्त होगा।”
परमसत्ता की भक्ति और आन्तरिक मधुरता
वास्तव में आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा (परमसत्ता) की भक्ति से उठने वाली आन्तरिक मधुरता से अधिक आनन्द संसार की नश्वर वस्तुओं व विषयसुख में नहीं है और जब व्यक्ति परमसत्ता की भक्ति में डूब जाता है, तब ऐसा क्षण आता है जब सुख-दु:ख, ईष्र्या-द्वेष, अहंकार जैसी भावनाएं विलुप्त होजाती हैं और मन शांति के जिस क्षेत्र में प्रवेश करता है, उस क्षेत्र से अधिक पवित्र स्थान और कोई नहीं है। इन्हीं क्षणों में आपकी आत्मा परमसत्ता के निकट होती है।
अपने कार्य-व्यवहार में परिवर्तन लाओ
जीवन बहुत छोटा है, लेकिन इच्छायें अनंत हैं। यदि इच्छाओं की पूर्ति में ही लगे रहे, तो परमसत्ता को कब याद करोगे, मानवीय कत्र्तव्यों का निर्वहन कब करोगे? स्वयं को पहचानो, जब तक अपने आपको नहीं पहचानोगे, प्रकृतिसत्ता और उसके निर्माण तथा प्रलय की शक्ति को नहीं पहचान पाओगे। इस स्थूलशरीर पर, अपनी कार्यशैली पर घमण्ड मत करो। प्रेम करना सीखो और अपने स्वभाव व कार्य-व्यवहार में परिवर्तन लाओ।
: अलोपी शुक्ला