संकल्प शक्ति। जहां देखो, वहाँ अभाव की छाया विद्यमान है, जिसके चलते राक्षसीवृत्ति उभर करकेसामने आ रही है और मानवता विलुप्त होती जा रही है। वर्तमान समय में चहुँओर अभाव का ही रोना है, कोई भी सन्तुष्ट दिखाई नहीं देता और लोग दिन-रात इस अभाव को पूरा करने में लगे हुये हैं। यहाँ तक कि इस अभाव की पूर्ति के लिये लोगों ने बिना सोचे-समझे, बिना विचार किये अनीति-अन्याय-अधर्म के रास्ते का चयन कर लिया है, लेकिन अभाव है कि समाप्त होने का नाम ही नहीं लेता।
यह अभाव गरीबों से ज़्यादा अमीरों को सता रहा है। गरीब तो बेचारे दिनभर मेहनत करने के बाद जो पारिश्रमिक मिलता है, उससे अपनी दैनन्दिन आवश्यकता की पूर्ति करके रात्रि में सुख की नींद सोता है और सुबह उठकर फिर काम पर चल देता है। यदि उसके पास से अभाव की आवाज़ आती, तो आश्चर्य नहीं होता, लेकिन जब धनिक वर्ग के लोगों को अभाव नाम की इस चीज से छटपटाते हुये देखा जाता है, तो आश्चर्य होना स्वाभाविक है। इसका मूल कारण है मन की लालसा, कुत्सित इच्छाओं में बढ़ोत्तरी। जबकि, एक साधारण मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति सहज रूप से कर सकता है।
यदि वास्तव में इस अभाव के बारे में विचार किया जाये, तो जितना क्रन्दन, वेदना इसे लेकर उठ रही है, उतनी है नहीं। परिलक्षित है कि समाज के ज़्यादातर लोग कृत्रिम अभाव, दूषित इच्छाओं के कारण परेशान रहते हैं।
ऋषिवर सद्गुरुदेव परमहंस योगीराज श्री शक्तिपुत्र जी महाराज समाज को इस कृत्रिम अभावजनित अशांति से उबारना चाहते हैं। अपने तपबल से, अपने चिन्तनों के माध्यम से ऐसा परिवर्तन लाना चाहते हैं कि लोग अपने अन्दर की शक्ति को पहचानें, विचारवान बनें और धर्म-अध्यात्म की ओर बढ़ें। इस हेतु उन्होंने नशामुक्त, मांसाहारमुक्त व चरित्रवान् जीवन जीने की अद्वितीय प्रेरणा प्रदान की है।
ऋषिवर का कथन है कि ”समाज के बीच आज जो भी दु:ख, असंतोष व अभाव की व्यग्रता परिलक्षित है, उसका मुख्य कारण मन की सोच है, बढ़ती हुई दुषित इच्छाएं हैं। यदि वास्तविक रूप से गौर किया जाये, तो रोटी-कपड़ा और मकान की पूर्ति से कई गुना खर्च लोग नशे व वासनापूर्ति में कर देते हैं। विलासिता की वस्तुयें प्राप्त करने के लिये एक-दूसरे का गला काटने से नहीं हिचकिचा रहे, जबकि प्रयत्न करने पर भी मूल ज़रूरतें नहीं बढ़ाई जा सकतीं और कृत्रिम आवश्यकताओं का अंत नहीं। चाहे कोई भी व्यक्ति हो, भोजन उतना ही करेगा, जितनी कि पेट को ज़रूरत है। कपड़े उतने ही पहनेगा, जितना बड़ा शरीर है। यद्यपि भोजन मूल आवश्यकता है, लेकिन इसके लिये मांस, मदिरा का भक्षण करें, यह कितनी घृणित बात है!
सामान्य भोजन, जो स्वस्थ जीवन के लिये आवश्यक है, चावल, दाल, रोटी, सब्जी, इनकी पूर्ति दैनन्दिन कुछ रुपये में की जा सकती है। कपड़ों के लिये भी यही बात लागू होती है। कपड़ा केवल तन ढकने के लिये चाहिये, जिससे शरीर और इज्जत (मर्यादा) की रक्षा हो सके। साधारण हवादार मकान भी कम पैसों से बनवाया जा सकता है।ÓÓ
ध्यान रखें विलासपरक वस्तुयें, नशे व मांस का सेवन, वासनायुक्त इच्छायें, जीवन को नष्ट ही करती हैं। दूषित इच्छायें तो जीवन की भयानक शत्रु हैं।
:- अलोपी शुक्ला