पंचांग के अनुसार, हर साल माघ मास के कृष्णपक्ष की नवमी तिथि को भीष्म पितामह की जयंती मनाई जाती है। इस बार ये शुभ तिथि 04 फरवरी, दिन रविवार को पड़ रही है। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार भीष्म पितामाह एकमात्र ऐसे पात्र हैं, जो शुरू से लेकर आखिर तक महाभारत में बने रहे। उन्होंने अपने प्राण तभी त्यागे जब देखा कि हस्तिनापुर अब सुरक्षित और योग्य हाथों में है। मृत्यु से पहले उन्होंने पांडवों को राजनीति, युद्धनीति, कूटनीति और अर्थनीति से जुड़ी कई अहम बातें बताईं, लेकिन क्या आप जानते हैं पूर्व जन्म में भीष्म पितामह कौन थे और उन्हें किस तरह का वरदान प्राप्त था?
महाभारत के अनुसार, भीष्म पितामह पूर्व जन्म में वसु यानी देवता थे, लेकिन एक बार उन्होंने बलपूर्वक एक ऋषि के गाय का हरण कर लिया था, ऐसे में ऋषि ने क्रोधित होकर उन्हें और उनके 07 भाइयों को मनुष्य के रूप में जन्म लेने का श्राप दे दिया था। पितामह के 07 भाइयों को तो देवनदी गंगा में प्रवाहित कर श्राप मुक्त कर दिया गया, लेकिन पितामह भीष्म ने श्राप के प्रभाव से आजीवन ब्रह्मचारी रहकर अपना जीवन व्यतीत किया।
पितामह भीष्म राजा शांतनु व देवी गंगा की आठवीं संतान थे। पहले उनका नाम देवव्रत था। उनकी योग्यता को देखते हुए राजा शांतनु ने उन्हें युवराज बना दिया, इसके बाद जब राजा शांतनु की आसक्ति सत्यवती पर हो गई, तो उनकी इच्छा पूरी करने के लिए देवव्रत ने आजीवन ब्रह्मचारी रहने का संकल्प ले लिया। इससे प्रसन्न होकर राजा शांतनु ने उन्हें इच्छामृत्यु का वरदान दिया था। देवव्रत की प्रतिज्ञा के चलते उनका नाम भीष्म पड़ा।
महाभारत युद्ध के दौरान भीष्म पितामाह को कौरवों की ओर से प्रधान सेनापति बनाया गया। वरदान की वजह से उनकी मृत्यु किसी के भी हाथों संभव नहीं थी और इसके बिना पांडवों का जीतना भी मुश्किल था। ऐसे में युद्ध के दौरान एक रात पांडव भीष्म पितामाह से मिलने पहुंचे. तब उन्होंने बताया कि अगर कोई स्त्री युद्ध में मेरे सामने आ जाए तो मैं शस्त्र रख दूंगा, जिसके बाद श्रीकृष्ण के कहने पर अर्जुन ने शिखंडी को अपने आगे खड़ा कर लिया, क्योंकि शिखंडी जन्म से एक स्त्री था, इसलिए भीष्म ने उस पर शस्त्र नहीं चलाया। ऐसे में भीष्म पितामाह को अर्जुन ने अपने बाणों से शरशय्या पर लेटा दिया।