अपने व्यक्तित्त्व को साधना की चरमअवस्था तक पहुँचाने के लिए, अपने शरीर को आत्मचेतना से परिपूर्ण करने के लिए भारतीय ऋषियों ने तप का कष्टसाध्य जीवन अंगीकार किया। अपने घर की सुख-सुविधाओं का त्याग करके अरण्य में कुटिया बनाकर, आश्रम बनाकर जीवन को धर्म-अध्यात्म के वैभव से परिपूर्ण किया और उनके द्वारा समाज को प्रकाशित करने का कार्य किया गया।
ऋषियों के त्यागमय जीवन से साक्षात्कार के लिए आपको प्राचीन ऋषियों व महापुरुषों के जीवनग्रन्थों को खँगालने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि आप वर्तमान समय में दो दशक के अन्तराल में ही अँधियारी नामक स्थान को अपने तप से उजियारी में परिवर्तित करनेवाले ऋषिवर सद्गुरुदेव परमहंस योगीराज श्री शक्तिपुत्र जी महाराज के संघर्षमय जीवनदर्शन से ज्ञान प्राप्त करके आप भी उच्चता को प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन, जो आपश्री के संघर्षमय जीवनदर्शन को आत्मसात न करके स्वयं के पतितकर्म को ढकने के लिए उनके त्यागमय जीवन पर शंका प्रकट कर रहे हैं, निश्चय ही उन्हें इसी जीवन में घोर यातनाओं से गुज़रना पड़ सकता है।
हर्ष का विषय यह है कि आज इस 21वीं सदी में भी भारत की पुण्यधरा पर समाज को जीवंत करने वाले ऋषिवर श्री शक्तिपुत्र जी महाराज उपस्थित हैं और इस पुण्यधरा पर अध्यात्मिकता का शान्तिपूर्ण झरना प्रवाहित करने में सतत प्रयासरत हैं। लेकिन, अपराधिकप्रवृत्ति के कुछ ढोंगी-पाखंडी, समय-समय पर अपनी लालची कुत्सित मंशा की पूर्ति के लिए अध्यात्मिकता के इस झरने पर अवरोध उत्पन्न करने का प्रयास करते रहते हैं और ऐसे पतित लोगों की जितनी निन्दा की जाए, वह कम ही होगी। मुझे आशा ही नहीं, पूर्ण विश्वास है कि ढोंगी-पाखंडी धर्माचार्यों से समाज के लोग निश्चित रूप से सजग होंगे।
जैसा कि विदित है कि वर्तमान समय में अनेक स्थानों पर छद्म वेशधारियों ने सनातनधर्म को लूट का माध्यम बना लिया है। यदि उनके जीवन पर गहराई से दृष्टिपात करें, तो उनमें से एक भी योगी नहीं मिलेगा, क्योंकि उनमें साधना की प्रवृत्ति नाममात्र भी नहीं है। वे केवल बाह्य आडम्बर फैलाकर अपना स्वार्थसिद्ध करने में लगे हुए हैं। वे केवल कुछ टोना-टोटका सीखकर, चमत्कार के नाम पर समाज के लोगों को ठगते व मूर्ख बनाते देखे जा रहे हैं। ऋषिवर श्री शक्तिपुत्र जी महाराज के द्वारा समाज को जाग्रत् करने के लिए, ऐसे लुटेरे व अपराधिकप्रवृत्ति के लोगों के विरुद्ध आवाज़ उठाए जाने पर धीरे-धीरे उन सभी की पोल खुलती जा रही है, जिससे वे बिलबिला उठे हैं और अनाप-शनाप बकते हुए देखे-सुने जा रहे हैं। अत: ऐसे लोगों के चक्रव्यूह में न फंसें, अन्यथा शारीरिक पीड़ा का हरण तो नहीं होगा और न ही सुख-समृद्धि की प्राप्ति होगी, बल्कि ऊपर से मनस्ताप भोगना पड़ेगा।
अतिगूढ़ विषय है अध्यात्म साधना
अध्यात्म साधना अतिगूढ़ विषय है, जिस पर आगे बढऩे के लिए कठिन तप की आवश्यकता होती है, लेकिन कुछ लुटेरे, वेशधारियों ने धर्म-अध्यात्म को अधिकाधिक धन कमाने का ज़रिया बना लिया है और वे देवपीठों की छवि को दागदार बना रहे हैं। उन्हें समाज के लोगों को बरगलाने के अलावा इतना भी ज्ञान नहीं होगा कि एक साधक धर्म की अन्तिमअवस्था, ‘मुक्तिलाभÓ कैसे प्राप्त करता है?
मुक्तिपथलाभ कैसे प्राप्त हो? इस बात का ज्ञान ऋषिवर सद्गुरुदेव श्री शक्तिपुत्र जी महाराज ने प्रदान किया है। आपश्री का चिन्तन है कि ”जो आत्मतत्त्व को जानकर आज्ञाचक्र पर ध्यान लगाकर यौगिक स्नान करता है, वही मुक्तिलाभ प्राप्त करता है और इसके लिए योगसाधना के बारे में जानना आवश्यक है।ÓÓ
आपका जीवन कैसे बनेगा दिव्यतम?
प्रकृतिसत्ता के द्वारा बनाए गए नियमों के अनुरूप चलने और उसकी सार्वभौमिकता को स्वीकार कर लेने से आपका जीवनस्तर दिव्य, दिव्यतर और दिव्यतम बन सकता है, लेकिन आप हैं कि उसकी सार्वभौमिकता को स्वीकार ही नहीं कर पा रहे हैं, यही कारण है कि जीवन निम्न से निम्नतर होता जा रहा है।
प्रकृति परिवर्तनशील है और इसी के अनुरूप मनुष्य का जीवन भी एकसमान नहीं रहता। जिस तरह दिन के बाद रात और रात के बाद दिन होता है, शीतऋतु के बाद ग्रीष्म और ग्रीष्म के बाद वर्षाऋतु का आगमन होता है, ठीक उसी तरह मावनजीवन भी परिवर्तनशील है कि जन्म के बाद मृत्यु, सुख के बाद दु:ख आते हैं। यद्यपि सामान्य मस्तिष्क वाला व्यक्ति, जो सीमित विचारों के आसपास घूमता है, वह प्रकृति के इन परिवर्तनशील नियमों को ठीक से नहीं समझ सकता और यही कारण है कि वह अपनी उन्नति पर अतिप्रसन्न होता है और थोड़ी भी कठिनाई आने पर दु:खी व उद्विग्न हो उठता है।
परिस्थितियाँ अपने आप में कुछ नहीं हैं
विषम परिस्थितियों में रोना, दूसरों के सामने गिड़गिड़ाना, इधर-उधर भटकना और तनावग्रसित होजाना, जीवन के प्रति निराश होजाना है, जबकि एकाएक उत्पन्न विपरीत परिस्थिति इतनी भयंकर नहीं होती कि आप प्रयास करके उससे पार न निकल सकें। यदि हम यह कहें कि परिस्थितियाँ अपने आप में कुछ नहीं हैं, वरन् मन की स्थिति से ही, विचारों के परिणामस्वरूप ही सुख-दु:ख की स्थिति निर्मित होती है, तो $गलत न होगा। दृढ़ मनमस्तिष्क वाला व्यक्ति विषम से विषम परिस्थिति को भी सहजरूप से स्वीकार करके आगे बढ़ जाता है और प्रयत्न करके लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है।
ऋषिवर सद्गुरुदेव परमहंस योगीराज श्री शक्तिपुत्र जी महाराज का कथन है कि–
”जीवन में यदि संघर्ष नहीं हैं, तो आप उच्चता को प्राप्त कर ही नहीं सकते। बिना संघर्ष किए आज तक कोई महापुरुष बना ही नहीं और लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए जीवनभर संघर्षरत रहने वाला ही महापुरुष होता है। अत: विषम परिस्थितियों से घबड़ाकर, जो हार मानकर बैठ गया, तो समझिए कि उसका जीवन समाप्त हो गया। इसके विपरीत जो व्यक्ति कठिनाईयों को प्रकृतिसत्ता का वरदान समझकर आगे बढ़ गया, तो वही कठिनाईयां उसके लिए सफलता का माध्यम बन जाती हैं। तथापि, चाहे सुख की अवस्था हो या दु:ख की, हर स्थिति-परिस्थिति को हृदयंगम करके समानभाव से जीवन को गति देनी चाहिए।
जो आत्मज्ञानी है, विवेकवान है…
सुख और दु:ख जीवन के दो पहलू हैं, जिसे दिन और रात के समान समझना चाहिए, जो कि आते-जाते रहते हैं और जो मनुष्य इस तथ्य को समझता है, जो आत्मज्ञानी है, विवेकवान है, उसे हर परिस्थिति एकसमान प्रतीत होती है, लेकिन जो आत्मज्ञान से हीन हैं, अविवेकी हैं, वे विपरीत परिस्थिति आने पर घबड़ाकर तनावग्रस्त होजाते हैं। अनेक महापुरुषों ने तो सुख-वैभव त्यागकर संघर्षपूर्ण जीवन का चयन किया और उनका जीवन अग्नि में तपकर खरे सोने की तरह दमक उठा। वस्तुत: विपरीत परिस्थितियाँ, दु:ख-कष्ट, कठिनाईयाँ, ये सब जीवन की कसौटी हंै और जो इनसे धैर्यतापूर्वक निकल जाता है, उसका जीवन ही प्रभावशाली बनता है।