नई दिल्ली, संकल्प शक्ति। वनों और वन्यजीवों की सुरक्षा के लिए पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, वन संरक्षण अधिनियम, राष्ट्रीय वन्य जीव कार्य योजना, टाइगर परियोजना, राष्ट्रीय उद्यान और अभयारण्य, जैव-क्षेत्रीय रिजर्व कार्यक्रम आदि चलाने का शिगूफा तो बहुत है, लेकिन तेज औद्योगिक विकास और राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी कह लें या फिर कथित अंधाधुंध भ्रष्टाचार के चलते पर्यावरण संरक्षण का काम हासिए पर है।
वैज्ञानिकों का मानना है कि पेड़ों की अंधाधुंध कटाई और जलवायु में हो रहे बदलाव के कारण कई जीव धीरे-धीरे धु्रवीय दिशा या उच्च पर्वतों की ओर विस्थापित होने लगेंगे। अगर ऐसा हुआ तो फिर विविधता और पारिस्थितिकी अभिक्रियाओं यानी जलवायु परिवर्तन पर नकारात्मक असर पड़ेगा, जिसके परिणाम गंभीर होंगे।
‘ग्लोबल फारेस्ट रिसोर्स एसेसमेंट (जीएफआरए) की ताजा रिपोर्ट बताती है कि 1990 से 2015 के बीच कुल वन क्षेत्र तीन फीसदी घटा है और एक लाख दो हज़ार लाख एकड़ से अधिक का क्षेत्र 98,810 लाख एकड़ तक सिमट गया है, यानी 3,190 लाख एकड़ वनक्षेत्र में कमी आई है। एक अनुमान के मुताबिक विकास के नाम पर प्रत्येक वर्ष सात करोड़ हेक्टेयर वनक्षेत्र को नष्ट किया जा रहा है।
वनों के विनाश से वातावरण ज़हरीला होता जा रहा है और प्रतिवर्ष दो अरब टन अतिरिक्त कार्बन-डाईआक्साइड वायुमंडल में घुल-मिल रहा है। इससे जीवन का सुरक्षा कवच मानी जाने वाली ओजोन परत को नु$कसान पहुंच रहा है। यदि समय रहते हम सचेत हो जाएं और अपने आसपास के वातावरण को हरा-भरा बनाना शुरू कर दें, तभी जीवन सुरक्षित रह सकता है।