Thursday, May 9, 2024
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जब अन्तर्मन शान्त होगा, तभी सतोगुणी कोशिकायें जाग्रत् होंगी- सद्गुरुदेव श्री शक्तिपुत्र जी महाराज

संकल्प शक्ति। जिन स्वामी सच्चिदानंद स्वरूप ऋषिवर सद्गुरुदेव परमहंस योगीराज श्री शक्तिपुत्र जी महाराज का चित्त शांत व मृदुल स्नेहिल मुस्कान से युक्त रूप हो तथा जिनके अमृततुल्य वचनों का श्रवण करके मनन करने से यह मानव शरीर चैतन्यशील होजाता हो, ऐसे सद्गुरुदेव जी महाराज के चिन्तन जीवनपथ पर बढऩे के लिए जीवनपर्यन्त प्रेरणा प्रदान करते रहेंगे।

ऋषिवर का चिन्तन है कि —

‘‘जीवन को सुचारु रूप से संचालित करने के लिए मनुष्य के पास शान्ति के साथ अध्यात्मिक शक्ति होनी चाहिए, आत्मज्ञान होना चाहिए। जीवन में यदि दु:खों का निवारण करना है, तो शान्ति धारण करनी पड़ेगी। शान्ति का तात्पर्य आलस्य, अकर्मण्यता नहीं, बल्कि अन्त:करण में पवित्रता धारण करना है, जिससे अन्तर्मन सभी झंझावतों से दूर हो सके और जब अन्तर्मन शान्त होगा, तभी सतोगुणी कोशिकायें जाग्रत् होंगी। इस शरीर में असंख्य कोशिकायेें भरी हुई हैं और हर कोशिका में अपार शक्ति निहित है। अन्त:करण की पवित्रता के लिये सर्वप्रथम आपको अपने अन्दर व्याप्त हो चुके ‘ईष्र्या-द्वेष, अहंकार, दूसरों की निन्दा करने की प्रवृत्ति, काम, क्रोध, लोभ’ को दूर करना होगा। 

हमारे शरीर के अन्दर ही रक्षात्मक प्रणाली छिपी हुई है, जो असाध्य से असाध्य बीमारियों को भी दूर करने में सक्षम है। जब हम मन को एकाग्र करके ध्यानावस्थित मुद्रा में बैठते हैं, तो शरीर के अन्दर छिपी हुई रक्षात्मक प्रणाली सक्रिय होजाती है। इतना ही नहीं, सतोगुणी कोशिकायें चैतन्य होकर भविष्य की घटनाओं के बारे में भी संकेत देने लगती हैं, जिनसे आप बचाव कर सकते हैं। यहाँ तक कि मृत्यु को भी अपनी साधना के बल पर टाल सकते हैं।’’

 सद्गुरुदेव जी महाराज ने  हम सभी के कल्याण के लिए; दु:ख, संत्रास से मुक्ति के लिये ही पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम सहित हर उस स्थान पर अपनी चेतनातरंगें प्रवाहित कर रखी हैं, जहाँ सत्यधर्म का प्रवाह है, जहाँ नित्यप्रति माता भगवती आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा की स्तुति होती है। अत: मन व हृदय को सम्पूर्ण रूप से निर्मल करके अपने-अपने घरों में श्री दुर्गाचालीसा का पाठ करें। माथे पर कुंकुम का तिलक, घरों में शक्तिध्वज, गले में रक्षाकवच धारण करे, शान्तिप्रद जीवन का यही मूल मन्त्र है। जिस तरह हर कार्य के लिये समय नियत है, ठीक उसी प्रकार प्रात: नित्यक्रिया से निवृत्त होने के पश्चात् कुछ समय इष्ट और सद्गुरु की पूजा-आराधना, ध्यान, साधना के लिये देना चाहिये, जिससे जीवन स्वच्छ व रमणीक बना रहे। गुरुवरश्री ने हमेशा अपने चिन्तन में हमें कुछ न कुछ दिया है। गुरुवरश्री ने बतलाया है कि प्रात: सोकर उठने से पहले अपने दोनों हथेलियों को आपस में रगडक़र पहले चेहरा फिर शरीर के अन्य अंगों का स्पर्श करें, क्योंकि सोते समय शरीर की ऊर्जा  हथेलियों में एकत्रित होजाती है। उक्त विधि अपनाने से शरीर में पूरी तरह चैतन्यता आजाती है।इसके बाद मन में इस प्रकार की दिनचर्या निर्धारित करें कि समस्त कार्यो में उत्कृष्टता का समावेश हो और उसी के अनुरूप पूरा दिन व्यतीत करें, ताकि किसी प्रकार के भटकाव की स्थिति निर्मित न हो सके। तद्नुसार ही रात्रि में सोने से पूर्व, बिस्तर में एकाग्रचित्त होकर दिनभर के कार्यों का आंकलन करें, आत्ममंथन करें। यदि भूल से भी कहीं कोई त्रुटि रह गई हो, $गल्ती हो गई हो तो अगले दिन ही उस त्रुटि के लिये, उस भूल के लिये प्रायश्चित करें, जिससे दूसरे दिन के अन्य सभी कार्य श्रेष्ठता के साथ सम्पन्न हो सकें।

 अलोपी शुक्ला

कार्यकारी सम्पादक

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