प्राण ही जीवन है, प्राण ही चेतना है, प्राण ही शक्ति है, प्राण ही सत्य है, प्राण ही औषधि है तथा प्राण ही अंधकार से प्रकाश की ओर लेजाने वाला सशक्त माध्यम है। हमारा शरीर प्राणचेतना से ही संचालित है। प्राणों के बिना जीवन का अस्तित्व ही नहीं है। हमारे शरीर की सभी क्रियायें प्राण के द्वारा ही संचालित हैं।
प्राणायाम के माध्यम से हम अपने शरीर के सभी सातों चक्रों को चेतना प्रदान करके तथा अपना पूर्ण आत्मोत्थान करके अपनी दिव्य शक्तियों को हासिल कर सकते हैं। प्राणायाम के द्वारा ही ध्यान और समाधि की अवस्था प्राप्त होती है। हमारे शरीर में पंचप्राणों के द्वारा ही सभी क्रियायें संचालित होती हैं। प्राणायाम के द्वारा ही शरीर के पंचकोषों को जाना और समझा जा सकता है।
प्राणायाम एक बहुत व्यापक विषय है। समय के साथ प्राणायाम के विषय में एक अलग पुस्तक तैयार करके जनहित में प्रदान की जायेगी। इस शक्तियोग पुस्तक के अन्तर्गत प्राणायाम के विषय में कुछ प्रारम्भिक महत्त्वपूर्ण प्राणायाम व उन्हें करने की विधि का ज्ञान दिया जा रहा है।
प्राणायाम का अर्थ केवल श्वासों को नियंत्रित करना और उन्हें रोकना ही नहीं है। साधक जब इस सत्य को स्वीकार कर लेता है कि मैं एक अजर-अमर-अविनाशी आत्मा हूँ तथा प्राण ही एक ऐसा माध्यम है, जिससे मैं अपने स्वरूप को जान सकता हूँ, अपनी आत्मा को जान सकता हूँ, तब वह अपने मन को प्राणचेतना में एकाग्र करके अपने आपको प्राण ही समझने का प्रयास करता है। प्राणायाम करते-करते मन सहज एकाग्र होने लगता है। इससे हमारी अंतरकोशिकाएं चैतन्य होजाती हैं।
प्राण के प्रथम चरण में पूरक, कुंभक, रेचक और बाह्य कुंभक के क्रम को समझना व प्रारम्भ करना नितांत आवश्यक है। सहज प्राणायाम में यह चार क्रियायें ही होती हैं।
प्राणायाम की प्रथम प्रक्रिया
- पूरक- श्वास को अंदर भरने को पूरक कहा जाता है।
- कुंभक- श्वास को भरकर अंदर रोक रखने को कुंभक कहा जाता है।
- रेचक- श्वास को बाहर निकालने की प्रक्रिया को रेचक कहा जाता है।
- बाह्य कुंभक- पूरी श्वास को बाहर निकालकर रोक रखने को बाह्य कुंभक कहते हैं।
प्राणायाम के नियम व सावधानियां
प्राणायाम करते समय कुछ बातों को ध्यान में रखना नितांत आवश्यक होता है। वैसे तो इस पुस्तक में योगासन करते समय सावधानियां व नियम लिखे गये हैं, मगर प्राणायाम के पहले कुछ महत्त्वपूर्ण नियम व सावधानियों का उल्लेख करना आवश्यक है:
- प्राणायाम करते समय समतल भूमि का आसन हो। ऐसे किसी भी आसन में बैठें, जिसमे आपकी मेरुदण्ड सीधी रहे, जैसे सुखासन, पद्मासन, सिद्धासन, वज्रासन। अस्वस्थ होने की स्थिति में सीधे पीठ के बल लेटकर या किसी ऐसी कुर्सी पर बैठकर, जिसमें रीढ़ की हड्डी सीधी रहे, प्राणायाम कर सकते हैं।
- प्राणायाम ऐसे स्थल पर करना ज्यादा लाभदायक रहता है, जहां शुद्ध वायु हो, सुगन्धित वातावरण हो, प्रदूषण न हो, तीव्र हवाएं न चल रही हों तथा कोलाहलपूर्ण वातावरण नहीं होना चाहिए।
- प्राणायाम शरीर की शुद्धता, स्नानादि करके शुद्ध वातावरण में किया जाये, तो ज्यादा फलदायक होता है।
- प्राणायाम करते समय इस बात का विशेष ध्यान रखें कि श्वास नाक से ही लें और नाक से ही छोड़ें। मुख से श्वास नहीं लेना चाहिए। श्वास लेने पर फेफड़ों में श्वास भरने का क्रम होता है, न कि पेट की ओर आकर्षित करके पेट को फुलाएं। वर्तमान में अनेकों बड़े-बड़े योगाचार्य ऐसी गलतियां करते हैं कि जब वे श्वास भरते हैं, तो सीना कम और पेट अधिक फूलता है, जो सर्वथा गलत है।
- प्राणायाम में हठपूर्वक श्वास रोकने का प्रयास नहीं करना चाहिए। अपने शरीर की क्षमता के अनुसार सहज रूप से तथा धैर्यता व मन की एकाग्रता से प्राणायाम करना चाहिए।
शेष अधिकांश सावधानियां वही हैं, जो योगासनों को करने से पहले इस पुस्तक में दी गई है। प्राणायाम करते समय जब हम श्वास को अंदर भरते हैं या हर पल जब हम श्वास लेते रहते हैं, तो इस सत्य का एहसास बना रहना चाहिए कि हमारे शरीर के अंदर केवल सामान्य वायु ही प्रवेश नहीं कर रही है, बल्कि इस वायु में समाहित है संजीवनी शक्ति प्राणचेतना, जो हमारे शरीर में जाकर हमारे प्राणों को बल प्रदान करती है।
प्राण के स्वरूप
शरीर में प्राण के अलग-अलग स्वरूप होते हैं। वैसे तो प्राण एक ही है, जिसे पंचप्राण तथा पंचउपप्राणों में विभक्त किया गया है-
- प्राण- शरीर में कण्ठ से लेकर हृदय तक के अंगों को जो वायु क्रियाशील रखती है, उसे प्राण कहा गया है।
- अपान- नाभि से लेकर मूलाधार तक के अंगों को जो वायु क्रियाशील रखती है, उसे अपान कहा गया है।
- उदान- कण्ठ से ऊपर सिर तक के अंगों को जो वायु क्रियाशील रखती है, उसे उदान कहा गया है।
- समान- हृदय से नीचे नाभि तक के अंगों को जो वायु क्रियाशील रखती है, उसे समान कहा जाता है।
- व्यान- यह प्राणवायु हमारे पूरे शरीर में फैलकर प्राणचेतना का संचार करती है और शरीर के सभी अंगों को सक्रिय रखती है।
उपर्युक्त इन पांच प्राणों के साथ ही पांच उपप्राण क्रमश: देवदत्त, नाग, क्रकल, कूर्म और धनंजय हैं, जो क्रमश: छींकना, पलक झपकना, जंभाई लेना, खुजलाना और हिचकी लेना क्रियाओं को क्रियान्वित करते हैं।
पंचकोष
मनुष्य के शरीर में पांच कोष होते हैं, जिन्हें पांच शरीर भी कहा जाता है, जो क्रमश: निम्नलिखित हैं:
1. अन्नमय कोष– यह शरीर का प्रथम भाग है, जिसे हम सामान्य अवस्था में देखते-समझते व पहचानते हैं। यह अन्न, भोज पदार्थों और आहार-विहार से स्वस्थ होता है व संचालित होता है। इस परिवेश में सामान्य मनुष्य हरपल भोग-विलास आदि का जीवन जीता है। यह कोष पृथ्वी तत्व से संबंधित है।
2. प्राणमय कोष– यह हमारे शरीर का दूसरा भाग है, जिसमें प्राण तत्व की प्रधानता होती है। हमारे शरीर का संचालन पंचप्राण एवं पंचउपप्राणों से होता है। इसमें मनुष्य कुछ सत्य की ओर उठता है और समझने लगता है कि अन्न और शरीर ही सब कुछ नहीं है। हमारा शरीर अन्न से ही जीवित नहीं है, श्वास और इसके साथ महाप्राण भी बहुत जरूरी है। यहां हम इस सत्य को स्वीकार कर लेते हैं कि अन्न से अधिक जरूरी प्राण है, जो अन्नमय कोष को भी संचालित करते हैं और मनोमयकोष को भी ऊर्जा प्रदान करते हैं।
3. मनोमय कोष– यह शरीर का महत्त्वपूर्ण पक्ष है और सूक्ष्म शरीर का प्रथम भाग कहलाता है। इसमें मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त की वृत्तियां, एकाग्रता, ध्यान और संकल्प-विकल्प आदि का ज्ञान होता है। इसमें पांच कर्मेन्द्रियों की क्रियाशीलता आदि समाहित हैं।
4. विज्ञानमय कोष– यह कोष ज्ञानप्रधान कोष है और सूक्ष्म शरीर का दूसरा चरण कहलाता है। यह पांच ज्ञानेन्द्रियों, बुद्धिक्रम की प्रखरता, निर्णय लेने की क्षमता, सत्य-असत्य तथा धर्म-अधर्म का ज्ञान प्रदान करके सूक्ष्म शरीर को जाग्रत् करके उसे ध्यान समाधि की ओर अग्रसर करता है। इसी कोष के जाग्रत् होने से व्यक्ति सहजभाव से धर्मपथ पर, सत्यपथ पर बढऩे लगता है, उसे सत्यपथ का ज्ञान होने लगता है तथा चित्त की वृत्तियों का पूर्णतया निरोध होकर वह ध्यान समाधि की ओर अग्रसर होता है। यहां से दिव्यता की प्राप्ति का प्रारम्भ होजाता है।
5. आनन्दमय कोष– यह पांचवा कोष कारण शरीर है। कारण शरीर मूलस्वरूप कहलाता है। इस कोष के जाग्रत् होने पर ही पूर्ण आनन्द, दिव्यता, चैतन्यता व पूर्णत्व की प्राप्ति करके मनुष्य मोक्ष का अधिकारी हो जाता है। वह सम्पूर्ण सत्य का ज्ञान प्राप्त कर लेता है तथा आत्मा की जननी जगज्जननी से जुड़ जाता है।
बंध
प्राणायाम से शरीर में प्राणों के द्वारा जो शक्ति उत्पन्न होती है, उसे रोककर उध्र्वगामी बनाने और सुषुम्ना नाड़ी को चैतन्य करने के लिए बंधों का ज्ञान होना नितांत आवश्यक है। बंधों को क्रमश: चार भागों में बांटा गया है- मूलबंध, उड्डियान बंध, जालंधर बंध और महाबंध। किसी भी बंध को लगाने के लिए सुखासन, सिद्धासन या पद्मासन जैसे आसनों में बैठना ज्यादा श्रेष्ठ होता है।
1. मूलबंध– इसमें हल्का बाह्य कुंभक करके, गुदा द्वार को अंदर की ओर खींचकर पूरी तरह से बंध लगाने का प्रयास करते हैं। इस बंध को अधिक से अधिक समय तक लगाकर बैठ सकते हैं। साधक इस बंध को जितना अधिक से अधिक समय लगाये रखते हैं, उतना ही चेतनाशक्ति उध्र्वगामी होती है तथा कुण्डलिनी शक्ति चैतन्य होती है। सतत अभ्यास करते-करते मूल बंध को हम चलते-फिरते और खड़े होकर भी करने में अभ्यस्त हो जाते हैं। इससे मूलाधार चक्र जाग्रत् होने लगता है।
2. उड्डियान बंध– इस बंध में बाह्य कुंभक करके नाभि को अंदर की ओर आकर्षित कर खींचते हैं और खींचकर रोके रखते हैं। दूसरी प्रक्रिया में खड़े होकर दोनों जाघों में हाथ की हथेलियों को टिकाकर थोड़ा आगे की ओर झुककर बाह्य कुम्भक करके नाभि को अंदर की ओर खींचकर रोक रखते हैं। इससे मणीपूर चक्र चैतन्य होता है और नाभि व पेट से संबंधित रोगों में लाभ प्राप्त होता है। इसी क्रम में पेट के कुछ लाभों के लिए नौलिक्रिया भी कर सकते हैं, जिसमें नाभि को अंदर खींचकर दायें-बायें घुमाते हैं।
3. जालंधर बंध– इसमें गर्दन को आगे झुकाते हुए दाढ़ी को नीचे की ओर झुकाकर कंठ की ओर मोड़ते हैं, जिससे कंठ के पास बंध लग जाता है। इससे गले से संबंधित रोगों में लाभ मिलता है। साथ ही, इस बंध से प्राणचेतना चैतन्य होकर सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश करती है।
4. महाबंध– उपर्युक्त तीनों बंधों को एक साथ लगाने को महाबंध कहते हैं। इस महाबंध से प्राणचेतना उध्र्वगामी होती है। इड़ा, पिङ्गला और सुषुम्ना नाड़ी संयुक्त होकर उध्र्वगामी व चैतन्य होती है।
प्राणायाम के प्रकार
योगशास्त्रों की पुस्तकों में चालीस से पचास प्रकार के प्राणायामों का उल्लेख मिलता है, मगर उनमें से 75 प्रतिशत ऐसे हैं, जिनकी कोई विशेष उपयोगिता या अनिवार्यता नहीं है। मुख्यत: दस से पन्द्रह प्रकार के प्राणायाम ऐसे हैं, जिनसे प्राणायाम का सम्पूर्ण लाभ मिल जाता है। उन्हीं महत्त्वपूर्ण प्राणायामों का यहां पर उल्लेख किया जा रहा है। उनमें भी ध्यान की गहराई में जाने के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण ‘माँ’ और ‘ॐ’ का क्रमिक उच्चारण प्राणायाम अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यहां पर उस क्रम को प्रारम्भ किया जा रहा है, जो अनुभवसिद्ध है तथा जिसे अन्य पुस्तकों से प्राप्त नहीं किया जा सकता।
1. ‘माँ’ और ‘ॐ’ उद्गीत प्राणायाम
‘माँ’ और ‘ॐ’ आध्यात्मिक मंत्र भण्डारों में से सर्वश्रेष्ठ, अत्यन्त महत्त्वपूर्ण, पूर्ण फलदायी, चेतना प्रदान करने वाले तथा मन को एकाग्र करने वाले बीजमंत्र हैं, जो अंत:करण की गहराई में लेजाकर चेतनाशक्ति को चैतन्य करने में पूर्ण सहायक हैं। इनके सस्वर उच्चारण करने से प्राणायाम भी होता है और शरीर के समस्त चक्रों का मंथन भी होता है। ‘माँ’ और ‘ॐ’ बीजमंत्रों का अधिक से अधिक अनवरत उच्चारण और मानसिक जाप करके हम अपनी आंतरिक चेतना को जगा सकते हैं और ध्यान व समाधि की गहराई में जाकर पूर्णत्व को प्राप्त कर सकते हैं। भविष्य में ‘माँ’ और ‘ॐ’ बीजमंत्रों के विषय में समाज को अलग से एक पुस्तक प्रदान की जायेगी। इस संदर्भ में यहां पर संक्षिप्त जानकारी दी जा रही है।
सुखासन, पद्मासन, सिद्धासन या वज्रासन आदि किसी भी सुविधायुक्त आसन में बैठकर अपने इष्ट या गुरु का ध्यान करते हुए आज्ञाचक्र पर ध्यान को एकाग्र करें और आंख बंद करके क्रमश: एक बार ‘माँ’ और फिर ‘ॐ’ का सस्वर उच्चारण करें। इसमें अपनी सामथ्र्यानुसार स्वर को दीर्घता प्रदान करें। सामथ्र्य का तात्पर्य जोर से चिल्लाना नहीं हैं, बल्कि धैर्यता, संतुलन और मन की एकाग्रता के साथ मध्यम स्वर में उच्चारण करें। जब ‘माँ’ का उच्चारण करें, तो लगभग एक चौथाई समय ‘म’ का उच्चारण रहे, शेष 75 प्रतिशत समय ‘आं’ का गुंजरण रहे। चिंतन रहे कि हम मकार, उकार और आकार की ओर अपने अंत:करण की ऊर्जा को आकर्षित कर रहे हैं, अर्थात् कारण शरीर की गहराई से अपनी ऊर्जा शक्ति को सूक्ष्म शरीर में लाते हुए स्थूल शरीर से जोडऩे की भावना होनी चाहिए।
इसी प्रकार ‘ॐ’ का उच्चारण करें, तो उसमें 50 प्रतिशत समय ‘ओ’ का उच्चारण हो और 50 प्रतिशत समय ‘म’ का उच्चारण हो। ‘ओ’ से प्रारम्भ करके ‘म’ के उच्चारण तक गुंजरण की ध्वनि इस प्रकार होनी चाहिए, जैसे मंदिर के घंटे को हम एक बार बजा देते हैं, तो धीरे-धीरे उसकी लम्बी ध्वनि गुंजरित होती है। उच्चारण में भावना रहे कि हम अकार-उकार से होते हुए मकार में पहुंचते हैं, अर्थात् स्थूल शरीर से सूक्ष्म शरीर, फिर सूक्ष्म शरीर से कारण शरीर होते हुए अंत:करण की शक्ति में समाहित होकर शान्ति और आनन्द में स्थित होने की भावना होती है।
निष्कर्ष यह है कि ‘माँ’ के उच्चारण में अपनी आंतरिक चेतना को आकर्षित करके अपने बाह्य स्थूल शरीर तक समाहित करने और चैतन्यता को प्राप्त करने की भावना होती है! ‘ॐ’ के उच्चारण में बाहरी कोलाहलपूर्ण वातावरण से स्थूल को शांत करते हुए अपने अंत:करण में प्रवेश करके शांति में स्थित होने की भावना रहती है। इन दोनों उच्चारणों को क्रमवार करने से शरीर का मंथन होता है, नाडिय़ां चैतन्य होने लगती हैं और रोम-रोम में ऊर्जा समाहित होने लगती है। फलस्वरूप, हमारी कुण्डलिनी चेतना चैतन्य होकर उध्र्वगामी होती है। यही मंथन सहज हमें ध्यान और समाधि की गहराई में पहुंचा देता है। यदि हम सतत प्रयास करते रहें, तो इसके पूर्ण प्रभावक परिणाम दृष्टिगोचर होने लगते हैं। इससे विषय-विकारों का दमन होता है और इन्द्रिय संयमन होता है। उच्चारण के इस क्रम को किसी योग्य गुरु के मार्गदर्शन में और गहराई से समझना चाहिए।
2. सहज प्राणायाम
इसमें हम शांतचित्त बैठकर धीरे-धीरे गहरी श्वास अंदर भरते हैं। फिर अपनी सामथ्र्यानुसार श्वास थोड़ी देर रोक रखते हैं और फिर धीरे-धीरे बहार निकाल देते हैं। इस तरह बाहर निकालकर थोड़ी देर शरीर को श्वास से रिक्त रखते हैं, अर्थात् पूरक, कुम्भक, रेचक और बाह्य कुम्भक करते हैं। इसको हम स्वभाव में भी अधिक से अधिक ढ़ाल सकते हैं कि चलते-फिरते, बैठे हुए या कोई काम करते हुए गहरी श्वांस भरें और बाहर निकालें। इससे गहरी श्वास लेने की आदत पड़ जाती है, फेफड़े चैतन्य होजाते हैं और हमारे शरीर को भरपूर ऑक्सीजन मिलती रहती है। इससे शरीर स्वस्थ रहता है। बीमार या अस्वस्थ होने की अवस्था में लेटकर भी आप इस प्रक्रिया को कर सकते हैं।
3. अनुलोम–विलोम (नाड़ीशोधन प्राणायाम)
इसमें सुखासन, पद्मासन, सिद्धासन, कमलासन या वज्रासन आदि किसी सुविधायुक्त आसन में बैठें तथा शांतचित्त होकर मन को एकाग्र करें। मेरुदण्ड सीधी रहे। बायें हाथ को सुविधानुसार जैसे घुटनों आदि पर रख लें। दायें हाथ के अंगूठे से दायीं नाक को हल्का सा बंद करें, तर्जिनी उंगली को नाक के ऊपर भौहों के मध्य में रख सकते हैं या थोड़ा उठाये रख सकते हैं। मध्यमा और अनामिका उंगली को बायें नाक के छिद्र पर रखें। फिर बायें नाक से धीरे-धीरे गहरी श्वास लेते हुए पूरक करें, और उसी तरफ से ही श्वास निकाल दें, रेचक करें। इसके बाद बायीं नाक को बंद करके दायीं नाक से श्वास भरें और उसी से ही निकाल दें। इन दोनों प्रक्रियाओं को तीन से पांच बार करें। फिर दूसरे क्रम में बायीं नाक से श्वास भरें और उसे बंद करके, दायीं नाक से निकाल दें। अब दायीं नाक से श्वास भरें और बायीं नाक से निकाल दें। इस क्रम को कम से कम पांच से दस बार करें। श्वास अंदर भरकर यथाशक्ति रोक रखें, फिर दूसरे नाक से निकालें। अर्थात् पूरक, कुम्भक, रेचक करें। इस क्रम से सम्पूर्ण नाडिय़ों का शोधन होता है। इस प्राणायाम से मन की एकाग्रता बढ़ती है, शरीर में चेतना का संचार होता है, शरीर स्वस्थ रहता है तथा यह सभी प्रकार की बीमारियों में लाभदायक है।
4. सूर्यभेदी प्राणायाम
सुविधायुक्त आसन में बैठकर दाहिने हाथ की मध्यमा और अनामिका से बायें नाक को बंद कर लें। फिर दाहिने नाक से तेजी से श्वास अंदर भरें और यथाशक्ति रोक रखें तथा मूलबंध व जालंधर बंध लगायें। तत्पश्चात् पहले मूलबंध छोड़े, फिर जालंधर बंध छोड़े। अब दायीं नाक को अंगूठे से बंद कर लें और बायीं नाक से श्वास को तेजी से निकाल दें। इससे शरीर में उष्णता प्राप्त होती है, चेतना का संचार होता है तथा स्वास्थ्य के लिए लाभदायक है व कुण्डलिनी चेतना को जाग्रत् करने में सहायक है।
5. चंद्रभेदी प्राणायाम
इसमें दायीं नाक को बंद करके बायीं नाक से श्वास भरते हैं। उसके बाद कुंभक करके मूलबंध और जालंधर बंध लगाते हैं तथा यथाशक्ति श्वास को रोक रखते हैं। इसके पश्चात् पहले मूलबंध और फिर जालंधरबंध को छोड़ते हुए बायीं नाक को बंद कर लेते हैं और दायीं से तेजी से श्वास को बाहर निकाल देते हैं।
इससे शरीर में शीतलता प्राप्त होती है, थकावट दूर होती है, मन में शांति होती है, रोगों को दूर करने में सहायक है व चेतना प्रदान करता है।
6. कपालभाति प्राणायाम
यह प्राणायाम भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। कपालभाति का तात्पर्य है मस्तक को, आभामण्डल को दीप्त करना या चैतन्य करना। यह किसी भी सुविधायुक्त आसन में बैठकर करना चाहिए। इसके दो प्रकार हैं- एक सहज या सौम्य कपालभाति और दूसरी तीक्ष्ण कपालभाति, जिसे भस्रिका भी कहते हैं। इसे खाली पेट करना चाहिए। चैतन्यता से बैठकर सौम्य कपालभाति में नाभि को थोड़ा अंदर की ओर हल्के झटके से खींचते हैं और चेतना को ऊपर की ओर चढ़ाने का प्रयास करते हैं। इसमें श्वास आंशिक रूप से रेचक होती है। मगर, इसमें श्वास को बाहर निकालने का भाव ज्यादा नहीं रखते हैं। हम अपनी नाभि को बार-बार अंदर की ओर झटके देते हुए, अपनी सुषुम्ना नाड़ी की ऊर्जा को मस्तक, सहस्रार की ओर चढ़ाने का प्रयास करते हैं।
यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण क्रम है। इसको नेत्र बंद करके आज्ञाचक्र पर ध्यान लगाकर कर सकते हैं। इससे आलस्य-जड़ता दूर होती है और शरीर में चैतन्यता आती है।
तीक्ष्ण कपालभाति में हम उसी प्रकार नाभि को झटके से अंदर खींचते हैं और उसी के साथ ही नासिका से अंदर की वायु को रेचक कर झटके से बाहर निकालते हैं। इसमें पूरक नहीं किया जाता, अर्थात् श्वास को अंदर भरने का प्रयास नहीं करते, बल्कि सहज भाव से कुछ श्वास अंदर चली जाती है। हम बार-बार शीघ्रता से इसी क्रम को सतत करते रहते हैं। हम नित्यप्रति कम से कम सौ बार या अधिकतम हजार बार यदि इसे करते हैं, तो वह पूर्ण फलदायी होता है। यदि किसी के पेट का ऑपरेशन हुआ हो, तो उसके बाद कम से कम छ: माह तक नहीं करते। इस प्राणायाम से सभी प्रकार के रोगों में लाभ प्राप्त होता है, नाडिय़ों का शोधन होता है और अंदर की दूषित वायु बाहर निकल जाती है। वात-पित्त-कफ का शरीर में संतुलन बनता है तथा चेहरे पर चैतन्यता आती है। साथ ही, कुण्डलिनी चेतना को जगाने में सहायता मिलती है। मन शांत और प्रसन्न होता है। विकारों का दमन होता है और मोटापा दूर होता है। लीवर, किडनी एवं हृदय को लाभ प्राप्त होता है।
7. भस्रिका प्राणायाम
इसके लिए सुखद-सहज आसन में बैठकर और मुह बंद करके नाक से शीघ्रता से श्वास अंदर भरकर पूरक करते हैं और तुरंत नाक से बाहर निकालते हैं, रेचक करते हैं। इस क्रम में तेजी से सिर को ऊपर उठाते हुए पूरक करते हैं और शीघ्रता से सिर को थोड़ा सा नीचे झुकाते हुए रेचक करते हैं। इस प्राणायाम को अपनी शारीरिक सामथ्र्यानुसार सतत करते हैं। इसे कम से कम 50 बार से लेकर क्षमतानुसार हजार बार भी कर सकते हैं। चाहें तो बीच-बीच में रुककर सामान्य श्वास ले सकते हैं।
इस प्राणायाम को दो-तीन प्रकार से और भी कर सकते हैं। खड़े होकर या बैठकर दोनों हाथों को ऊपर की ओर उठाते हुए, गहरी श्वास अंदर भरें, फिर मुट्ठी बांधकर झटके के साथ श्वास बाहर निकालते हुए हाथों को कंधे तक लायें और पुन: मुट्ठी खोलकर हाथ को ऊपर लेजायें और पुन: वह प्रक्रिया दोहरायें। जितनी शारीरिक क्षमता हो, उतनी बार यह प्राणायाम करें।
दूसरे क्रम में श्वास भरते हुए हाथों को सामने लेजायें और मुट्ठी बंदकरके शीघ्रता से श्वास छोड़ते हुए हाथों को कंधे की ओर खींचें, फिर श्वांस लेते हुए हथेली को बाहर लेजायें। इसी क्रम को शीघ्रता से बार-बार करें।
यह शरीर के समस्त रोगों में पूर्ण फलदायी है तथा कुण्डलिनी चेतना को जगाने में पूर्ण सहायक है। इसे तीक्ष्णता से दो-चार मिनट करने से ही शरीर पूरी ऊर्जा से भर जाता है। कई बार अधिक मात्रा में सतत करने से शारीरिक ऊर्जा बढऩे के कारण मूर्छा तक आजाती है। इसलिए किसी योग्य गुरु के मार्गदर्शन में सावधानीपूर्वक करें। प्रारम्भ में इसे अभ्यास होने तक के लिए धीमी गति में ही करना चाहिए।
हृदय के मरीजों को इसे नहीं करना चाहिए। अस्वस्थ होने की अवस्था में भी इसे तीक्ष्णता से नहीं करना चाहिए। साधकों व ब्रह्मचारियों के लिए यह सबसे अधिक फलदायी है।
8. भ्रामरी प्राणायाम
भ्रामरी का अर्थ है भौंरे की तरह गुंजरण की ध्वनि करना। इस प्राणायाम में किसी भी सुविधायुक्त आसन में बैठकर आज्ञाचक्र पर ध्यान केन्द्रित करते हुए दायें हाथ के अंगूठे से दायें कान को और बायें हाथ के अंगूठे से बायें कान को बंद करें। दोनों हाथों की तर्जनी के द्वारा हल्के से आंखों को बंद करें और दोनों हाथों की मध्यमा को नाक के ऊपर ऐसे रखें कि नाक बंद न होने पाए। दोनों हाथों की अनामिका को होठ के ऊपर और कनिष्ठा को होठ के नीचे रखें। अब मुख को बंद करके, भौंरे की आवाज की तरह गुंजरण करें। इसको पांच से दस बार तक कर सकते हैं। यह मन की एकाग्रता, तनाव से मुक्ति और ध्यान में सहायक है। यह मन की चंचलता को दूर करता है तथा इससे याददाश्त भी बढ़ती है। यह हर उम्र के लोगों के लिए लाभदायक है।
9. मूर्छा प्राणायाम
किसी भी सुखद आसन में बैठकर दोनों हाथों के अंगूठों से दोनों कान बंद कर लें और तर्जिनी से दोनों आंखें बंद कर लें। मध्यमा को नाक के ऊपर और अनामिका को होठों के ऊपर रख लें तथा कनिष्ठिका को होठों के नीचे रख लें। फिर नासिका से पूरी श्वास अंदर भरकर नासिका को बंद कर लें और जालंधर बंध लगा लें तथा यथाशक्ति अंदर रोकें और फिर नासिका से रेचक कर दें।
यह मन को मूर्छा प्रदान करता है, चित्त की एकाग्रता में सहायक है, चेतना के जागरण में सहायक है। सावधानी का ध्यान रखें तथा हाई ब्लडप्रैशर, मिर्गी के मरीज या जिन्हें चक्कर या बेहोशी आती है और हृदय के मरीज, गर्भवती महिलाएं इसे भूलकर भी न करें।
10. अग्निसार प्राणायाम
सहज सुखद आसन में बैठकर दोनों हाथों की हथेलियों को घुटनों या जांघों पर रखें तथा पूरी श्वास को रेचक करते हुए, बाह्य कुंभक करें। अब नाभि को पूरा अंदर की ओर खीचें, फिर ढीला छोड़ दें, फिर खींचे, फिर ढीला करें। इस क्रम को शीघ्रता से लगातार अपनी सामथ्र्यानुसार करते रहें। थकान लगने पर रुककर दो-चार सामान्य श्वास लें और फिर इसी प्रक्रिया को दोहराएं। इस तरह दो-तीन बार नित्यप्रति करें। इसे खड़े होकर, बैठकर या पीठ के बल लेटकर भी कर सकते हैं।
इससे नाभि की जड़ता दूर होती है, प्राणवायु सक्रिय होती है, पाचनतंत्र ठीक से कार्य करता है और शरीर को पूर्ण स्वास्थ्य प्राप्त होता है। यह पेट की चर्बी को घटाता है, कब्जादि में लाभदायक है व कुण्डलिनी चेतना जाग्रत् करने में सहायक है।
11. उज्जयी प्राणायाम
इसमें सहज आसन पर बैठकर गर्दन को आगे की ओर हल्का झुकाते हैं तथा गले का हल्का संकुचन करके इस प्रकार पूरक करते हैं, जैसे गले से बहुत हल्की खर्राटे की आवाज आती है। श्वास को धीरे-धीरे खींचकर थोड़ी देर कुम्भक करें और फिर धीरे-धीरे गर्दन को सीधा कर रेचक कर दें। इस क्रम को नित्यप्रति दो या तीन बार अवश्य करें। यह गले के समस्त रोगों के लिए लाभदायक है।
12. शीत्कारी प्राणायाम
किसी भी सुविधायुक्त आसन में बैठकर जिह्वा को ऊपर तालु पर लगाएं और साथ ही होठों को थोड़ा खोलकर जबड़ों (दांतों) को बंद करके श्वास को शीत्कार करते हुए अंदर खींचकर पूरक करें। फिर मुंह बंद करके नाक से धीरे-धीरे श्वास रेचक करें। यह प्राणायाम चार या पांच बार करें।
इससे मुख, दांत जिव्हा आदि के रोग दूर होने के साथ ही अजीर्णता को दूर करने वाला, पित्तनाशक, फेफड़ों को बल प्रदान करने वाला, शरीर को स्वास्थ्य प्रदान करता है। इससे प्यास मिटती है।
13. शीतली प्राणायाम
किसी भी सुखद आसन में बैठकर जीभ को थोड़ा बाहर निकालें और उसे हल्का गोलाकर बना लें। अब उसी से श्वास को अंदर की ओर खींचते हुए पूरक करें। फिर कुछ देर कुम्भक करके जीभ अंदर कर लें। अब मुख बंद करके नाक से श्वास को रेचक कर दें। इस क्रम को पांच से दस बार करें। इससे शरीर में शीतलता आती है, भूख-प्यास मिटती है और स्वास्थ्य में लाभदायक है। इससे ज्वर ठीक होता है और यह मुख व गले के रोगों में लाभ प्रदान करता है। उच्चरक्तचाप के रोगियों के लिए भी लाभदायक है। यह तनाव मिटाकर मन को एकाग्रता प्रदान करता है।