Saturday, November 23, 2024
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कुण्डलिनी शक्ति चक्र

मानवशरीर इस दृश्य जगत् में परमसत्ता माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा की सबसे उत्तम कृति है। जिसमें परमसत्ता का अंश दिव्य चैतन्य आत्मा का वास है। मानवशरीर में समस्त दृश्य-अदृश्य लोकों का ज्ञान, शक्ति एवं सामथ्र्य समाहित हैं। सामान्यत: दो प्रकार के जगत् का वर्णन किया जाता है- एक दृश्य जगत्, दूसरा अदृश्य जगत्।

जिस प्रकार दृश्य जगत् में असीम शक्ति, सामथ्र्य एवं ऊर्जा समाहित है, उससे असंख्य गुना सामथ्र्य अदृश्य जगत् में समाहित है। अदृश्य जगत् की शक्तियों का ज्ञान एवं उसकी ऊर्जा व सामथ्र्य को प्राप्त करने के लिए हमारे शरीर में ही सभी चक्र (ऊर्जा केन्द्र) स्थापित हैं, जो अलग-अलग स्वभाव, गुणशक्ति एवं सामथ्र्य से परिपूर्ण हैं और क्रमश: एक-दूसरे को प्रभावित करते हुए संयुक्त रूप से कार्य करते हैं।

शरीर में मुख्यतया सात मूल चक्र हैं। कुछ उनके सहयोगी चक्रों का भी वर्णन मिलता है, मगर सात चक्रों में ही मूल सत्य, ज्ञान, शक्ति एवं ऊर्जा समाहित हैं। ये सातों चक्र हमारे शरीर की रीढ़ की हड्डी के सबसे निचले भाग से प्रारम्भ होकर सिर के ऊपरी भाग तक स्थापित हैं, जो क्रमश: इस प्रकार हैं-

1. मूलाधार चक्र, 2. स्वाधिष्ठान चक्र, 3. मणिपूर चक्र, 4. अनाहत चक्र, 5. विशुद्ध चक्र, 6. आज्ञाचक्र, 7. सहस्रार चक्र।

परमसत्ता ने शरीर के अंदर समस्त सातों चक्रों का निर्माण इस प्रकार किया है कि जब इन चक्रों पर कुण्डलिनी शक्ति की ऊर्जा प्रवेश करती है, तो ये खिल उठते हैं, अर्थात् पूरी तरह से क्रियाशील होजाते हैं। सामान्य अवस्था में ये प्राय: सुप्त या निष्क्रिय अवस्था में रहते हैं। सामान्यत: ये चक्र बहुत सामान्य फल, प्रभाव दिखाते रहते हैं, जिसका उपयोग मानव सामान्य जीवन में करता है। इन सप्तचक्रों की सामान्य चेतना से ही मानव का जीवन संचालित रहता है। मगर, जब इन्हीं चक्रों में कुण्डलिनी की ऊर्जा शक्ति प्रवेश करती है, तो ये अपना पूर्ण प्रभाव दिखाते हैं और मानव, सामान्य मानव से महामानव बन जाता है। वह अलौकिक दिव्य शक्तियों का स्वामी बन जाता है।

कुण्डलिनी शक्ति का पूर्ण जागरण सहज और सरल प्रक्रिया नहीं है। उसकी पूर्ण ऊर्जा प्राप्त करने के लिए एक प्रबल इच्छाशक्ति, चेतनावान् गुरु का मार्गदर्शन व पूरी लगन व निष्ठा चाहिए। एक लम्बी साधनात्मक यात्रा पर चलने का दृढ़ निश्चय, स्वयं को जानने की इच्छाशक्ति व यम-नियमों का पालन करते हुए आसन-प्राणायाम-प्रत्याहार-धारणा-ध्यान-समाधि की एक क्रमिक प्रक्रिया पर चलकर ही कुण्डलिनी शक्ति को जाग्रत् किया जा सकता है। कई बार इष्ट एवं गुरु की प्रबल भक्तिभावना, धर्म के पूर्ण ज्ञान से भी जब मन की पूर्ण एकाग्रता और संयमित जीवन होजाता है, तो कुण्डलिनी शक्ति की कुछ ऊर्जा का प्रभाव साधक को प्राप्त होजाता है, जिससे वह कुछ चमत्कारिक कार्यों को करने की सामथ्र्य प्राप्त कर लेता है। वह उन्हीं सामान्य चमत्कारिक शक्तियों को पूर्ण मानकर एक ठहराव ले लेता है और उन्हीं शक्तियों का उपयोग करने लगता है। इसके कारण वह पूर्ण सत्य को कभी भी प्राप्त नहीं कर पाता। मगर, उसमें अनेकों प्रकार की अच्छाइयाँ समाहित होजाती हैं।

पूर्ण कुण्डलिनीसिद्ध चेतनावान् गुरु शक्तिपात के माध्यम से पात्र एवं योग्य शिष्य की कुण्डलिनी चेतना काल, परिस्थितियों और आवश्यकतानुसार जाग्रत् कर देता है या सतत उस प्रक्रिया की ओर बढ़ाता रहता है। हज़ारों-हज़ारों साल के कालखण्डों में कुछ गिनेचुने दो-चार सिद्ध साधक ऐसे निकलते हैं, जो अपनी पूर्ण कुण्डलिनी शक्ति को जाग्रत् कर पाते हैं। मगर, इस चेतना के प्रारम्भिक परिणाम ही मनुष्य को सामथ्र्यवान् बना देते हैं, अर्थात् कुण्डलिनी चेतना उध्र्वगामी होती है, तो क्रमिक रूप से वह जीवन को रूपांतरित करती रहती है। वह साधक को असत्य से सत्य की ओर बढ़ाती रहती है, अर्थात् कुण्डलिनी चेतना की कुछ ऊर्जा प्राप्त कर लेना ही मानवजीवन का सबसे बड़ा सौभाग्य होता है। इस कुण्डलिनी शक्तिसाधना की ओर बढऩे वाले साधकों को बड़े ही धैर्य की आवश्यकता होती है। उसे इस ज्ञान की आवश्यकता होती है कि कुण्डलिनी के सातों चक्रों को तत्काल जाग्रत् करके पूर्ण सिद्ध और शक्तिमान बनने की इच्छा न रखकर पहले सातों चक्रों को ऊर्जावान् बनाने का प्रयास करें। आपकी लगन, निष्ठा, विश्वास, समर्पण, संयमित जीवन और गुरु एवं इष्ट के प्रति निष्ठा एक न एक दिन आपको पूर्ण अवश्य बना देगी। वह एक जन्म में भी हो सकता है या अनेकों जन्मों के बाद। यह ज्ञान अजर-अमर-अविनाशी है। इस जीवन में आप जितना कुण्डलिनी चेतना की ऊर्जा को प्राप्त कर लेंगे, नवीन जीवन में संस्कार एवं भाग्य बनकर वह आपकी पूंजी के रूप में सहज प्राप्त होजाता है।

इन सातों चक्रों को जाग्रत् करने के लिए कई बार कुछ अपूर्ण धर्मग्रन्थों या अपूर्ण मार्गदर्शकों के द्वारा अलग-अलग प्रक्रियाएं भी बताई जाती हैं, जो अधिकांशतया सत्य से दूर होती हैं और साधक इन्हीं में उलझकर रह जाता है। अत: इसके लिए एक पूर्ण चेतनावान् कुण्डलिनी शक्तिसम्पन्न सिद्ध गुरु की आवश्यकता होती है। आपको उपर्युक्त नियमों का पालन तो करना ही होगा, तभी आप संयमित जीवन जीकर ध्यान की प्रारम्भिक अवस्था को प्राप्त कर पायेंगे। उसके बाद ही कुण्डलिनी शक्ति के जागरण का पूर्णक्रम प्रारम्भ होता है।

इन सातों चक्रों में आज्ञाचक्र को राजाचक्र कहा गया है। अत: साधकों को आज्ञाचक्र को माध्यम बना कर ही अन्य चक्रों को जाग्रत् करने का क्रम प्रारम्भ करना चाहिए। कुण्डलिनी शक्ति को सर्पाकार रूप में वर्णित किया जाता है। कुण्डलिनी शक्ति मूलाधार में गुदाद्वार के थोड़ा ऊपर व उपस्थेन्द्रिय के थोड़ा नीचे रीढ़ की हड्डी के प्रारम्भ में स्थित होती है, जो सर्प की भांति साढ़े तीन चक्र कुण्डली मारकर अपनी पूंछ को मुंह में दबाकर बैठी होती है। साधक के प्रयास से यही ऊर्जा के रूप में जाग्रत् होकर सुषुम्ना नाड़ी के माध्यम से रीढ़ की हड्डी से प्रवेश करके ऊपर की ओर बढ़ती है। यह क्रमश: सभी चक्रों को ऊर्जा व चेतना प्रदान करती हुई जब सहस्रार में पहुंच जाती है, तो अपना पूर्ण प्रभाव दिखाने लगती है। यह चेतना एक बार जाग्रत होकर लम्बे समय तक स्थित नहीं रहती। साधक के तप की पात्रता एवं मन की एकाग्रता के आधार पर स्थित रहकर यह पुन: अपने स्थान पर आजाती है, मगर अपना प्रभाव चक्रों पर छोड़ देती है। इससे चक्र निर्धारित सीमा तक अपना कार्य करते रहते हैं और धीरे-धीरे साधक इसमें पूर्ण पात्रता प्राप्त कर लेता है।

यहां पर कुण्डलिनी चेतना के विषय में बहुत ही संक्षिप्त जानकारी दी गई है व सातों चक्रों का संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है।

1. मूलाधार चक्र-

यह चक्र गुदाद्वार से लगभग दो अंगुल ऊपर और उपस्थेन्द्रिय से दो अंगुल नीचे स्थित होता है। इसके मूल में सुषुम्ना नाड़ी का स्थान है। इसके बायें इड़ा नाड़ी, जिसे चन्द्रनाड़ी कहते हैं व दायें पिडं्गला नाड़ी, जिसे सूर्यनाड़ी कहते हैं,  स्थित होती हैं। इन नाडिय़ों का प्रारम्भ मूलाधार से ही होता है। यहीं से हमारे शरीर की लगभग 72 हजार नाडिय़ां निकलती हैं, जिनसे पूरे शरीर का संचालन होता है। इनमें इड़ा, पिंड्गला और सुषुम्ना सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण नाडिय़ां हैं। इसी स्थल पर कुण्डलिनी शक्ति का वास होता है। इसीलिए इसे मूलाधार चक्र कहा गया है। इस चक्र में पृथ्वीतत्व की प्रधानता होती है। इसके चैतन्य होने या प्रथमस्तर पर जाग्रत् होने से साधक में साहस, पराक्रम, वीरता एवं पौरुषता के साथ ही कर्म करने की प्रधानता, धर्म पर आस्था, लगन एवं विश्वास बढऩे लगता है। साथ ही उसके शरीर में आरोग्यता की प्राप्ति होती है।

मूलाधार चक्र अत्यन्त महत्त्वपूर्ण चक्र है। इसके जाग्रत् होने से ब्रह्म तत्व का ज्ञान प्राप्त होता है, अर्थात् ब्रह्म की शक्तियों की सामथ्र्य प्राप्त होती है। इस चक्र के जाग्रत् होने से दूसरे चक्रों की ऊर्जा भी आंशिक रूप से बढ़ती है। यह साधक के ऊपर है कि वह इस चक्र पर अपनी कितनी पकड़ हासिल कर पाता है? मगर, साधक यहां की शक्ति का उपयोग तभी कर सकता है, जब ऊपर के कुछ महत्त्वपूर्ण चक्र जाग्रत् होते हैं। किन्तु, साधक की अनेकों प्रकार की कार्यक्षमताएं आंशिक रूप से बढ़ जाती है।

2. स्वाधिष्ठान चक्र

यह चक्र मूलाधार चक्र के ऊपर तथा उपस्थेन्द्रिय के मूल में होता है। इसमें जलतत्व की प्रधानता होती है। इस चक्र को विष्णु चक्र भी कहा जाता है। जब साधक इस चक्र को पूर्णत: जाग्रत् कर लेता है, तो वह भगवान् विष्णु की शक्तियों की सामथ्र्य हासिल कर लेता है। चक्रों के जागरण की एक क्रमिक प्रक्रिया होती है, जो क्रमश: ऊर्जा, चेतना और सामथ्र्य प्रदान करती जाती है। साधक कुछ सीमित शक्तियों का मालिक बन जाता है, मगर उसे शक्तियों का पूर्ण ज्ञान तभी होता है, जब सातों चक्र जाग्रत् होजाते हैं। इन चक्रों के जागरण में सजगता की नितांत आवश्यकता होती है। यदि साधक इस ऊर्जा का भौतिक जगत् में उपयोग करने लगता है, तो वह विकारी और अहंकारी बनकर पतन के मार्ग पर जाता है।

3. मणिपूर चक्र

यह चक्र नाभि के मूल में स्थित होता है। इसमें अग्नितत्व की प्रधानता होती है। इसे शिवचक्र भी कहा जाता है, अर्थात् इसके जागरण से शिव भगवान् की शक्तियों की सामथ्र्य प्राप्त होती है। यदि साधक के तीन चक्र मूलाधार, स्वाधिष्ठान और मणिपूर जाग्रत् होजाते हैं, तो वह अनेकों दिव्य शक्तियों का मालिक बन जाता है। मगर, वह इन चक्रों का पूर्ण ज्ञान एवं पूर्ण उपयोग तब तक नहीं कर पाता, जब तक सातों चक्र जाग्रत् नहीं होते। कई बार साधकों को इन चक्रों की प्रारम्भिक ऊर्जा प्राप्त करके भटकते हुए देखा गया है। अत: उच्चता की ओर वही साधक पहुंच पाता है, जो अपने मार्गदर्शक गुरु पर पूर्ण विश्वास करके सतत उनके मार्गदर्शन में आगे की यात्रा तय करता है।

4. अनाहत चक्र

यह चक्र हृदय के पास सीने के मध्य में स्थित होता है। इसका सीधा सम्बन्ध हृदय से होता है। इसमें वायुतत्व की प्रधानता होती है। यह चक्र अत्यन्त महत्त्वपूर्ण चक्र होता है। इसके बिना साधक अपनी कुण्डलिनी शक्तियों का प्रयोग कर ही नहीं सकता। अगर करेगा भी, तो उसकी दिशा सही नहीं होगी। वह तमोगुणी या रजोगुणी दिशा में ही बढ़ेगा। इस चक्र के जागरण से साधक के जीवन में संतुलन आता है। वह दया, ममता, करुणा एवं वात्सल्य से भरपूर हो जाता है। इसके पीछे मूल रहस्य यह है कि यह शक्ति का केन्द्र है, अर्थात् यह माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा की ऊर्जा से परिपूर्ण चक्र होता है। यह चक्र सातों चक्रों में मध्य का चक्र है। यह एक नियंत्रक चक्र भी कहलाता है। यही चक्र नीचे के चक्रों की दशा और दिशा तय करता है। मानवशरीर में हृदय का सर्वाधिक महत्त्व होता है। जब तक हृदय धड़क रहा है, जब तक हमारा जीवन चल रहा है। हृदय की धड़कन रुकते ही जीवन समाप्त हो जाता है। यही चक्र ऊपर के तीन चकों में कुण्डलिनी शक्ति की ऊर्जा पहुंचाकर हमें ज्ञान, सामथ्र्य एवं शक्ति की पात्रता प्रदान करता है। इस चक्र के जाग्रत होने के बाद ही से साधक की कार्यक्षमता चमत्कारिक रूप से बढऩे लगती है। इसे आगे के चक्रों में वर्णित किया जायेगा। इसी चक्र के कारण कुण्डलिनी शक्ति को माँ रूप में सम्बोधित किया जाता है।

दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि जब साधक अपने जीवन को संयमित करके कुण्डलिनी शक्ति का जागरण करता हुआ इस चौथे चक्र में पहुंचता है, तो उसे यही शक्ति एक माँ के रूप में अंतरंग योग में उसी प्रकार आगे बढ़ाती है, जैसे भौतिक जगत् में एक माँ अपने शिशु को उंगली पकड़कर खड़े होना, चलना और दौडऩा सिखाती है। जन्म लेकर अगर सही सहारा न प्राप्त हो, तो हम चलना भी नहीं सीख सकते। इसी प्रकार अंतरंग योग की गहराई में हमारा हृदयचक्र जितना परिपक्व होगा, उतना ही हम आगे की यात्रा पूर्णत्व से तय कर सकेंगे।

5. विशुद्ध चक्र-

यह चक्र गले में कण्ठ के पास स्थित होता है। इसमें आकाशतत्व की प्रधानता होती है। इस चक्र के जाग्रत् होने से साधक के अन्दर जितनी पात्रता निचले चक्रों में प्राप्त होती है, उसके अनुसार उसे वाणी की शक्ति व दिव्यता प्राप्त होती है, अर्थात् अंतरंग येाग में स्थूल से परे सूक्ष्म में जाकर वाणी, ध्वनियों एवं सूक्ष्म जगत् की भाषा का ज्ञान होता है। इससे साधक सूक्ष्म जगत् से सम्बन्ध स्थापित करने में सफल होता है। वह स्थूल जगत् में अपनी वाणी शक्ति के माध्यम से कुछ भी कर सकने में सामथ्र्यवान् बन जाता है। वह किसी को भी शब्दों के माध्यम से आशीर्वाद व शाप देने जैसी अनेकों शक्तियों को प्राप्त कर लेता है। उसकी वाणी पर अमल करने वाले लाखों-लाख लोग उसका अनुकरण करते हैं और उसके आदेशों का पालन करते हैं। इसी चक्र से साधक के द्वारा अपनी शक्तियों का सदुपयोग करने का क्रम प्रारम्भ होता है, जिसका माध्यम सर्वप्रथम उसकी वाणी बनती है।

6. आज्ञाचक्र

यह चक्र दोनों भौहों के मध्य में स्थित होता है। इसमें मन और ज्ञान की प्रधानता मानी गई है। इसे ज्ञान का चक्र भी कहा जाता है और राजाचक्र भी कहा जाता है। सही मायने में यह त्रिवेणी चक्र कहलाता है, जिसमें इड़ा, पिङ्गला और सुषुम्ना नाडिय़ां एक साथ मिलती हैं और यहीं से विपरीत क्रॉस करके इड़ा और पिङ्गला दिशा बदलकर सहस्रार की ओर प्रवेश करती हैं। इस चक्र को प्रकाशचक्र भी कहा जाता है। इसके जाग्रत् होने से दिव्यदृष्टि प्राप्त होती है और मनुष्य त्रिकालज्ञ बन जाता है। उसकी  बुद्धि, मन को पूर्णतया अपने आधीन कर लेती है। उसकी निर्णय लेने की क्षमता बढ़ती है। सत्य-असत्य का ज्ञान इसी चक्र से प्राप्त होता है। इस चक्र के माध्यम से ही हम कुण्डलिनी शक्ति का उपयोग कर पाते हैं और इसी के माध्यम से हम समािध की गहराई में बढ़ पाते हैं तथा सूक्ष्म जगत् की शक्ति का ज्ञान प्राप्त करते हैं। यह चक्र शक्ति को उपयोग करने का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण चक्र है। इसलिए साधकों को आज्ञाचक्र से ही ध्यान में प्रवेश करने की बात कही जाती है।

इस चक्र से ही हम नीचे के अन्य चक्रों को आकर्षित कर लेते हैं। इसको माध्यम बनाकर और इसी पर अधिक से अधिक ध्यान लगाकर नीचे के चक्रों की गतिविधियों का एहसास किया जाता है। सभी चक्र इस चक्र के माध्यम से कार्य करना प्रारम्भ कर देते हैं या इसका निर्देशन मानते हैं। इस चक्र की ऊर्जा को लेकर हम सहस्रार की ओर प्रवेश करते हैं।

7. सहस्रार चक्र

यह सिर के ऊपरी भाग में स्थित होता है। इसे सहस्त्रदल कमल भी कहा जाता है, शक्तिचक्र भी कहा जाता है और प्रकृति चक्र भी कहा जाता है। यही वह चक्र हैं, जिसमें कुण्डलिनी चेतना प्रवेश करने पर निर्बीज समाधि की प्रप्ति होती है। इससे मनुष्य के अंदर दिव्य शक्तियों का उदय होता है और वह प्रकृति के रहस्यों को समझ पाता है। इससे स्वस्वरूप का ज्ञान प्राप्त होता है व मनुष्य स्वस्वरूप की जननी से एकाकार करता है। इसी से अनन्त लोकों का ज्ञान प्राप्त होता है तथा कुण्डलिनी शक्ति पूर्ण स्वरूप को प्राप्त करती है। विशेष नोट- कुण्डलिनी शक्ति चक्रों के विषय में यहां पर बहुत ही संक्षिप्त जानकारी प्रदान की गई है। कुण्डलिनी शक्ति का एक-एक चक्र एक-एक लोक की शक्तियों के समान है। उनकी शक्तियों का वर्णन कम शब्दों में नहीं किया जा सकता। साधक को यह ज्ञान गुरु मार्गदर्शन से ही पूर्णता से प्राप्त होता है। यहां पर इस बात का ज्ञान होना आवश्यक है कि ये सातों चक्र एक-दूसरे के पूरक हैं। सातों चक्रों का पूर्ण जागरण एक बहुत लम्बी प्रक्रिया है। मगर, साधक जितने कदम चलता है, उतने कदम की ऊर्जा उसे प्राप्त होती जाती है। अत: धैर्यता के साथ उस ऊर्जा को प्राप्त करने की दिशा में आगे बढ़ते रहना चाहिए। इसके लिए ध्यान ही एकमात्र सशक्त माध्यम है और प्रबल इच्छाशक्ति होना आवश्यक है।

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