Thursday, May 9, 2024
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आशीर्वचन-परमहंस योगीराज श्री शक्तिपुत्र जी महाराज

मानव शरीर दिव्य शक्तियों से परिपूर्ण है, जिसे देवता भी प्राप्त करने के लिए तरसते हैं। यह बात अतिशयोक्तिपूर्ण लगती है, मगर यही पूर्ण सत्य है। क्योंकि, मनुष्य के पास ही वह मार्ग है कि वह कर्म करता हुआ, अपने सातों चक्रों को जाग्रत् करके ऋषित्व के मार्ग में बढ़ सकता है और परमसत्ता से एकाकार होकर दिव्य लोक का वासी बन सकता है, जो देवताओं के लिए दुर्लभ है। देवता बनना आसान है, मगर पूर्ण ऋषित्व को प्राप्त करना बहुत कठिन है। देवत्व सदा ऋषित्व के आधीन होता है। आज वही मानव जीर्ण-शीर्ण, रोगग्रस्त, असहाय, निष्क्रिय, भयग्रस्त, तनावों और समस्याओं से ग्रसित होकर दैहिक, दैविक और भौतिक तापों में जल रहा है। इसका मूलकारण है, उसका अपने मूलस्वरूप से दूर होना और इन्द्र्रियों को भौतिक जगत् के आधीन कर देना। पराधीन मनुष्य कभी सुखी नहीं रह सकता, जबकि वह पराधीनता नश्वर जगत् से जुड़ी हुई हो। और, इन्द्रियों के आधीन जीवन जीने वाला मनुष्य सत्य का ज्ञान प्राप्त कभी भी नहीं कर सकता। वर्तमान में मनुष्य भौतिक जगत् की उपलब्धियों से तृप्ति पाना चाहता है। आत्मा का सहज स्वभाव है, आनन्द की प्राप्ति और आनन्द भौतिक जगत् से प्राप्त हो नहीं सकता। वह तो शक्ति के सान्निध्य से ही प्राप्त होता है।
इन विषम परिस्थितियों में घिरे हुए मनुष्य के पास सिर्फ एकमात्र मार्ग है कि उसे वर्तमान को संवारना पड़ेगा, सत्यपथ का राही बनना पड़ेगा और गुरु की शरण में जाना होगा, उसे भक्ति, ज्ञान व आत्मशक्ति के पथ पर बढऩा ही होगा और इन सब के लिए हमारे शरीर का स्वस्थ होना नितांत आवश्यक है। जीर्ण-शीर्ण शरीर से न तो भक्ति हो सकती है, न तो ज्ञानार्जन और न ही आत्मशक्ति की प्राप्ति हो सकती है। अत: यदि मनुष्य अपना भला चाहता है, तो उसे शक्तियोग एवं धर्म के पथ पर चलना पड़ेगा। हमारे ऋषि-मुनियों ने भी इसी पथ पर चलकर अपने पूर्णत्व को प्राप्त किया है। हमें भी योगमार्ग पर चलना होगा। योग का तात्पर्य है, जोडऩा। जो जड़ को चेतन बना सके, अंधकार में प्रकाश ला सके तथा निष्क्रिय को सक्रिय कर सके। मगर, इसके लिए भी साधक के अंदर इच्छाशक्ति का होना नितांत आवश्यक है।
मनुष्य की इच्छाशक्ति संकल्प शक्ति में बहुत बड़ी ताकत होती है। अपनी संकल्प शक्ति के बल पर मनुष्य असंभव को भी संभव बना लेता है। वर्तमान में विज्ञान ने इतनी तरक्की की है कि हम अन्य ग्रहों में भी अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। ज्ञान से विज्ञान की उत्पत्ति होती है, न कि विज्ञान से ज्ञान की। विज्ञान भौतिक जगत् में ही सफलता अर्जित कर सकता है। आध्यात्मिक सफलता और अपने ‘मैं’ की खोज केवल ज्ञान और धर्म पथ पर चलकर ही संभव है।
वर्तमान में मनुष्य की जीवन शैली पतन की चरम सीमा पर है। उसका आहार-विचार और व्यवहार तमोगुणी और रजोगुणी है तथा शारीरिक श्रमशक्ति क्षीण हो चुकी है। मनुष्य शारीरिक अंगों का बहुत कम उपयोग कर रहा है, जिसके फल स्वरूप उसकी शारीरिक जड़ता और रोगों की वृद्धि हो रही है। हमारे ऋषि-मुनियों ने इसी जड़ता और रोगमुक्ति, ‘मैं’ की खोज और मुक्ति के लिए योग मार्ग के अन्तर्गत अष्टांग योग की जानकारी दी है। अत: वर्तमान में मनुष्य यदि स्वस्थ जीवन, मन और बुद्धि चाहता है, सुख-शान्ति-समृद्धि चाहता है, तो इस पथ पर चलना ही होगा। इस पुस्तक में आवश्यक सभी प्राणायाम व आसनों के साथ ही आवश्यक व्यायाम की भी क्रियाओं जोड़ा गया है। यम, नियम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि का भी संक्षिप्त वर्णन किया गया है। कुण्डलिनी रहस्य व त्राटक आदि की भी संक्षिप्त जानकारी दी गई है। साधक को योगमार्ग साधनापथ पर चलकर अपनी इन्द्रियों का संयमन कर ध्यान और समाधि की ओर बढऩे की लालसा होनी चाहिए। इस मार्ग पर चलने वालों को उतावलापन नहीं होना चाहिए। धैर्य के साथ दृढ़ इच्छाशक्ति लेकर बढऩे वाला व्यक्ति सफलता अवश्य प्राप्त करता है।

शक्ति का अर्जन ही योग है, शक्ति का विसर्जन ही भोग है।
शक्ति का उपयोग ही जीवन, शक्ति का उपभोग ही मृत्यु है।

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