सिद्धाश्रम, संकल्प शक्ति। जिनके हृदय में ममत्व का सागर हिलोरें ले रहा है, उन पूजनीया शक्तिमयी माता जी के श्रीचरणों में पृथ्वीरूप सुगन्ध, आकाशरूप पुष्प, वायुरूप धूप, अग्निरूप दीपक और अमृत के समान नैवेद्य समर्पित हैं। इन्हीं भावों के साथ दिनांक 17 फरवरी को पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम के वासियों ने शक्तिमयी माता जी का जन्मदिवस अतिउल्लास-उमंग और पूर्णभक्तिभाव के साथ मनाया।
दिनांक 17 फरवरी को भोर में सिद्धाश्रमवासियों के साथ आगन्तुक ‘माँ’ के भक्त नित्यप्रति की तरह मूलध्वज साधना मंदिर पहुँचे और वहाँ पूजनीया शक्तिमयी माता जी के द्वारा सम्पन्न की गई दिव्यआरती क्रम में सम्मिलित हुए। तत्पश्चात् सभी ने श्री दुर्गाचालीसा अखण्ड पाठ मंदिर में बैठकर ‘माँ’ का गुणगान करने के साथ ही सद्गुरुदेव श्री शक्तिपुत्र जी महाराज के द्वारा सम्पन्न की जा रही आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा और सहायकशक्तियों की आरती का लाभ प्राप्त किया।
पूजनीया माता जी का जन्मदिन होने के साथ ही 17 फरवरी को माघ शुक्लपक्ष की अष्टमी, गोसेवा समर्पण दिवस भी था। प्रात:कालीन आरतीक्रम व गुरुवरश्री को प्रणाम करने के उपरान्त, सिद्धाश्रमवासी त्रिशक्ति गोशाला पहुँचे और गोशाला की सफाई करके गायों को स्नान कराया। परम पूज्य गुरुवरश्री के साथ पूजनीया शक्तिमयी माता जी ने गोशाला पहुँचकर अपने करकमलों से गायों को स्नेहपूर्वक रोटियाँ खिलाईं।
इस पावन अवसर पर सायंकालीन बेला में भी परम पूज्य गुरुवरश्री के शिष्य व भक्तगण आरतीक्रम में सम्मिलित हुए और सद्गुरुदेव जी महाराज के श्रीचरणों का स्पर्शसुख प्राप्त करने के साथ ही हलुआ प्रसाद प्राप्त किया। तत्पश्चात् पूजनीया शक्तिमयी माता जी को प्रणाम करके ममत्वपूरित आशीर्वाद प्राप्त किया।
जैसे सूर्य के उदय होने से अन्धकार का अभाव होजाता है, वैसे ही पूजनीया महातपस्विनी शक्तिमयी माता जी के श्रीचरणों को स्पर्श करने मात्र से दु:खों का अभाव होजाता है। माता जी का चिन्तन है कि ”मन को विकारों से रहित निर्मल बनाओ, क्योंकि जब मन निर्मल होगा, तभी आत्मपद (दिव्यप्रकाश) की प्राप्ति होगी और जब आत्मपद की प्राप्ति होगी, तभी ध्यान-साधना के क्रम से परमपद मिलेगा। हम दु:खी तभी तक हैं, जब तक आत्मतत्त्व को नहीं जान पाते और जब हम आत्मतत्त्व को जानने में सफल होजाते हैं, तब मिलती है शान्ति और सभी दु:ख समाप्त होते चले जाते हैं।
निष्काम कर्मयोगी की तरह है माता जी का जीवन
सन् 1997 में सद्गुरुदेव जी महाराज के द्वारा ब्यौहारी, जि़ला-शहडोल (म.प्र.) के भयावह घनघोर निर्जन स्थान पर आश्रम बनाने का संकल्प लिया गया, जो कि वर्तमान में पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम के नाम से प्रसिद्ध है। सिद्धाश्रम धाम उस समय अपने भयावह स्वरुप के कारण अँधियारी नाम से जाना जाता था। जब गुरुवरश्री अपनी पुत्रियों, माता जी और कुछ शिष्यों को साथ में लेकर इस भयावह क्षेत्र में आए, तब यहाँ एक भी छायादार वृक्ष नहीं था और न समतल भूमि थी और न ही पीने के लिए स्वच्छ जल का कोई स्रोत था। ऐसे वातावरण में झोपड़ी बनाकर परिवार के साथ गुरुदेव जी अँधियारी क्षेत्र को आश्रम का स्वरुप देने में लग गए।
सांप-बिच्छू जैसे ज़हरीले जीव जन्तु, शीतऋतु की कड़कड़ाती ठण्ड, ग्रीष्म की तपिस एवं वर्षाऋतु में होने वाली भीषण बारिस के साथ असमायिक तूफान एवं भूत-प्रेतों की उपस्थिति जैसी विषम परिस्थितियों के बीच माता जी अपने कत्र्तव्य में रत रहीं। सही अर्थों में कहा जाए, तो आश्रम की स्थापना के समय आश्रम के प्रारम्भिक विषम वातावरण में रहने का ठोस निर्णय ही यह दर्शाता है कि माताजी में पूर्ण वैराग्य की स्थिति थी, तथापि जीवन सहजभाव से ढलता चला गया। यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि माताजी का जीवन, एक निष्काम कर्मयोगी की तरह है।
अनुकरणीय है सम दिनचर्या
माताजी की सम दिनचर्या, हर धर्मनिष्ठ मनुष्य के लिए अनुकरणीय है। आश्रमनिर्माण के प्रारम्भिककाल में माताजी को सुबह-शाम सद्गुरुदेव जी महाराज के शिष्यों, जो आश्रमनिर्माण में सहभागी थे और आगन्तुक भक्तों के लिए भोजन बनाना पड़ता था। इतना ही नहीं, प्रारंभ हो चुके श्री दुर्गाचालीसा अखंड पाठ में लगातार 6-6 घंटे बैठकर चालीसा पाठ करना पड़ता था, क्योंकि उस समय आश्रम में सेवाकार्य करने वाले कुछ लोग ही थे। साथ ही, वर्ष 1997 से प्रात:काल 04:30 बजे से मूलध्वज मंदिर में पूजन-आरती का क्रम आज भी माता जी के करकमलों से सम्पन्न हो रहा है।
सन् 2019 में संन्यास दीक्षा
पूजनीया माता जी का सम्पूर्ण जीवन कर्ममय रहा है और वे बचपन से ही माता जगदम्बे की पूजा-अर्चना करती चली आ रही हैं। माता जी की वास्तविक अध्यात्मिक यात्रा सन् 1984 में सद्गुरुदेव परमहंस योगीराज श्री शक्तिपुत्र जी महाराज से विवाह के पश्चात् प्रारंभ हुई। ‘माँ’ के प्रति अटूट भक्तिभाव, तप, त्याग और कर्मसाधना का शुभ परिणाम रहा कि शारदीय नवरात्र पर्व 2019 की पंचमी तिथि व गुरुवार के अतिमहत्त्वपूर्ण दिवस पर सद्गुरुदेव जी महाराज के द्वारा पूजनीया माता जी को संन्यास की दीक्षा प्रदान की गई। दीक्षा के साथ ही माताजी का नाम महातपस्विनी शक्तिमयी माता जी हुआ।
युगपरिवर्तन की यात्रा में हर विषमता को अमृत समझकर पान करने वाली, तप, त्याग, संयम और ममत्व की प्रतिमूर्ति पूजनीया शक्तिमयी माताजी के श्रीचरणों में सदा सादर नमन-वन्दन-प्रणाम।